सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-7)

हमारा संयोग अच्छा था कि नाव पूरी तरह से नहीं पलटी. जब हम उसमें से गिरे तो वह समन्दर से थोड़ा पानी भरते हुए फिर से सीधी होकर डगमगा रही थी. और मैं भी, क्योंकि मैंने नाव को नहीं छोड़ा , चंदू और रालसन दूर जा गिरे. रालसन की पतवार अब भी उसके हाथ में ही थी पर चंदू उसे गवां चुका था. उसकी पतवार हमारी पहुँच से दूर थी. चंदू ने तैरकर नाव को पकड़ लिया. रालसन मछली के अगले हमले के लिए इधर-उधर देखने लगा. लेकिन वह वापस न लौटी अब उसके हमले की आशंका कुछ कम हो गयी थी. इसलिए रालसन भी नाव के पास आ गया. हम तीनो ने मिलकर नाव को सही किया और बारी-बारी से उसपर चढ़ गए. नाव में अब भी पानी भरा था. जिसको मैं और चंदू अपने अंजुली के द्वारा बाहर निकालने लगे. रालसन अब भी मछली को ही देख रहा था. लेकिन ने मछली फिर से दूसरा हमला करना उचित न समझा. और अपनी हार स्वीकार कर समुद्र में समां गयी. काफी देर बाद (जबतक कि उसके दूसरे हमले की आशंका पूरी तरह से समाप्त न हो गयी) हमलोग अपनी नाव को अपनी मंजिल की तरफ बढाने के लिए फिर से कमर कसे. इस प्रकार हम मौत के मुह से अपनी जिन्दगी को खींच लाये थे. इस महत्वपूर्ण जीत से हमारे आत्मविश्वास...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-6)

मैं और मकसूद उस शराबी को देखने लगे. वह अपनी आखों को मींच रहा था और बार-बार पाईप को भी देख रहा था. मानो जैसे सपना देख रहा हो और जागने पर सपने में दिखा दृश्य अकाएक गायब हो गया हो. सुन्दरी उसके पास से चली गयी थी. वह भी अपनी दृष्टिभ्रम समझते हुए वापस जाने लगा, लेकिन बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता रहा जैसे किसी दुविधा में हो.                  “ओफ्फ ! बाल-बाल बचे”. – मैं लम्बी सांस छोड़ते हुए मकसूद से बोला बोला.           “जल्दी चलो यहाँ से ...समय बहुत कम है”- मकसूद का ध्यान लक्ष्य की तरफ था. हम दीवाल के उस दरवाजे के पास थे. मकसूद ने दीवाल में ही लगे एक हरे रंग के बटन को दबाया. दबाते ही दरवाजा घिर्रर... की आवाज के साथ खुल गया. हम दरवाजे के पार निकाल आये. उस तरफ जहा दो तीन संकरी गलियां थी. इसमें कोई आम तौर पर आता-जाता नहीं था. जहाज के सभी कबाड़ इधर ही डाले जाते थे. लकड़ी और लोहे का कबाड़. इनको पार करते हुए हम वहां पहुंचे जहाँ रईसजादों के कमरे थे.     ...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-5)

हम दोनों का परिचय जानने के बाद उस आदमी ने अपना परिचय इस प्रकार दिया – उसके अनुसार : उसका नाम रालसन था और वह पेशे से एक चोर था. उसका ठिकाना मल्लाहों की एक बस्ती में था. उसकी अपनी एक निजी एक मकान थी लेकिन शायद ही वह उसमे कभी रहा हो. वैसे उस मकान का सुख भोगने वाला उसका और कोई अपना नहीं था. अभी उसके बाल-बच्चे भी नहीं हुए थे कि उसकी पत्नी उसे अकेला छोड़कर परलोक सिधार गयी. वह अपने जीवन काल में बहुत सारा धन इकठ्ठा किया लेकिन कभी भी वह उसका भौतिक सुख नहीं भोग पाया. इतना धन होने के बावजूद भी वह अपने पेशे से बाज न आया. उसे चोरी करने में ही परम शुख की अनुभूति होती. उसने बताया कि शायद वह इस नशे का आदी हो गया था. उसने यह नशा अपनी मर्जी से नहीं बल्कि हालात से मजबूर होकर पकड़ा था. उसका दावा था कि उसके जगह पर यदि संसार का कोई भी इंसान होता तो शायद यही करता. क्योकि पैसे के कारण ही जमीदारों ने उसकी माँ को सरेआम बाजार में नंगा करके चाबुक से पीट-पीट कर मार डाला था. इतना ही नहीं उन जमीदारो ने उससे बचपन से लेकर कई वर्षों तक अपने यहाँ गुलामों की तरह रखा और उससे मजदूरी कराते रहे. एक दिन मौका पाकर वह वहां से...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-4)

जब मेरी नींद खुली तो अँधेरा छंट गया था और सूर्य अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए उतावला था. अनंत तक फैला समुद्र, स्पष्ट दिखाई दे रहा था. शांत समुद्र में हमारी जीवन नैया भी शांत थी. और वे दोनों भी शांत थे. मने सोये हुए थे. वह आदमी, जिसके सिर के आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. दाढ़ी में भी सफेद बालों का विकास जोरो पर था. शक्ल-सूरत से एक भला इंसान लगा. लेकिन उसके खर्राटे की आवाज भयानक थी. मैं उनके जागने के पहले ही अपने दैनिक क्रिया से निवृत हो गयी और अपने भीगे कपड़े सुखाने लगी.           जब वे जगे तो सूर्य काफी उपर चढ़ आया था. दूर-दूर तक केवल जल ही जल फैला हुआ था. हम कहाँ थे ? किस दिशा में थे ? कुछ मालूम न था. हमारी शुरूआती दिशा का ज्ञान भी अबतक मिट चुका था. इस लिए हमें हमें दिशाभ्रम हुआ और सूर्य का उदय पश्चिम दिशा की तरफ होता हुआ नजर आया.           मेरे कपडे सुख गए थे.जल्दी से मैंने उसे पहन लिया. वे दोनों भी कम्बल की आड़ लेकर दैनिक क्रिया से निवृत हुए. उसके बाद हम रात का बचा हुआ चना एक साथ ब...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-3)

           हम दोनों दुनियां से बेखबर आनंद के सागर में गोते लगा रहे थे,और कभी कभी उड़न भी भर रहे थे. वह मुझे आनंद की चरम ऊँचाई पर ले जाना चाहता था. मैं भी आखिरी उड़ान भर चुकी थी और मंजिल काफी नजदीक. चंदू की सांस, शांत वातावरण में विघ्न उत्पन्न करने लगी थी. मेरे भी मुह से आनंदमयी चीख निकलते-निकलते रह जाती. हम दोनों के जकड़न की कसावट बढ़ती चली जा रही थी. सहसा ! एक आवाज ने हमे चौकन्ना कर दिया. मैं चंदू से अलग हो गयी.           “तुमने कुछ सुना ?”- मैं हांफते हुए बोली.           “नहीं तो ! क्या हुआ ?” उसने हैरानी से मेरी आँखों में झाँका. एक बार फिर आवाज आयी- छप-छप-छप, जैसे कोई डूब रहा हो. चंदू ने भी सुना. मैं डरने लगी. चंदू भी चिंतित दिखा. हमने जल्दी से अपने-अपने कपड़ों को संतुलित किया. थोड़ी ही देर में फिर से वही  आवाज आयी. छप-छप-छप... लेकिन आवाज इस बार हम लोगों के काफी नजदीक से आयी थी. हमने उस तरफ अपना रुख किया. हमने देखा कि वह एक आदमी था जो अपना दोनों हाथ पानी ...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-2)

            “बाप रे !” मेरे मुह से चीख निकाल पड़ी. वह हंसने लगा. मैं उसकी तरफ देखने लगी, चेहरे का रंग बता रहा था कि वह बहुत प्रसन्न था. वह मेरी तरफ पलटा, उससे नजर मिलते ही मुझे हंसी आ गयी.             “आओ उधर चलते हैं, जहाज के पीछे की तरफ” वह मेरा हाथ पकड़कर आगे-आगे चलने लगा. मैं उसके पीछे-पीछे खींचती चली गयी.             अब हम जहाज के सबसे पिछले हिस्से के ग्राउंड फ्लोर वाले चहारदीवारी के पास थे. इंजन के  घड़घड़ाहट की आवाज आ रही थी. वहीँ चहारदीवारी के बाहर की तरफ एक छोटी नाव लटकी हुई थी. वहीँ हम दोनों कुछ देर तक खड़े रहे. जहाज के इंजन के अलावा वहां शांति पसरी हुई थी. मैं उस लड़के के बारे में सोच ही रही थी कि आगे वह क्या करने वाला है? इतने में देखते ही देखते वह जहाज के बाहरी सिरे पर लटकी उस छोटी सी नाव पर उतर गया. “नहीं ...नहीं ...तुम उधर मत जाओ ... गिर जाओगे”- मेरे मुह से चीख सी निकल पड़ी.    “यहाँ आओ न तुम भी”- उसने अपना हाथ मेरी...

भूमंडलीय दौर में हिंदी सिनेमा के बदलते प्रतिमान

भूमंडलीकरण एक ऐसी परिघटना थी , जिसने पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में दबोचकर सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बदलने का प्रयास किया। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा , भूमंडलीकरण के आने के बाद देश की आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आया है। इस बदलाव को साहित्य , सिनेमा एवं अन्य विविध कलाओं में सहज ही महसूस किया जा सकता है। जहाँ तक हिंदी सिनेमा की बात है , तो आज पहले की अपेक्षा अधिक बोल्ड विषयों पर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। यथा स्त्री-विमर्श , सहजीवन , समलैंगिकता , पुरूष स्ट्रीपर्स , सेक्स और विवाहेतर संबंध एवं प्यार की नई परिभाषा गढ़ती फिल्में इत्यादि। कहने का आशय यह नहीं है कि भूमंडलीकरण से पूर्व उपर्युक्त विषयों पर फिल्म निर्माण नहीं होता था , परंतु 1991 के पश्चात हिंदी सिनेमा में कथ्य और शिल्प के स्तरों पर प्रयोगधर्मिता बढ़ी है। दृष्टव्य है कि संचार माध्यमों में विशिष्ट स्थान रखने वाला सिनेमा , मात्र मनोरंजन का साधन न होकर जनमानस के वैचारिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक व सामाजिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित करता हैं। चूंकि सिनेमा अपने निर्माण से लेकर प्रदर्शित हो...

ज्ञान्ती (कहानी) हिंदी अकादमी की पत्रिका इन्द्रप्रस्थ भारती के अगस्त 2016 के अंक में प्रकाशित

‘मुझे अब एक पल भी इस घर में नहीं रहना. . .जा रही हूँ मैं… सबकुछ छोड़कर… हाँ-हाँ सब कुछ ! लेना तो मुझे एक साड़ी भी नहीं… लेकिन, ना लूँ तो पहनूंगी क्या ? अपने गहने ! कैसे छोड़ दूँ ? ये तो मेरे हैं. खाक मेरे हैं ? अरे, जब पैदा करने वाले मेरे नहीं रहे, तो अब इन गहनों से क्या सरोकार ? और क्या भरोसा कि जहाँ जा रही हूँ वहां भी मेरा कोई अपना होगा ? भांड में जाये सब... अब कुछ नहीं सोचना मुझे... बस, अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी. और … और अनुपम तो मेरा अपना है. वह जो भी करेगा, मेरे भले के लिए ही करेगा. मुझे उसपर भरोसा करना चाहिए, और कोई रास्ता भी तो नहीं’- ज्ञान्ति के मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे. और उसके हाथ-पांव इधर-उधर भागकर अपना काम करने में लीन थे. जब कपड़े और गहनों से, बैग ठसाठस भर गया तब वह कुछ शांत हुई. कमरे में इधर- उधर नजर दौड़ाई, ‘कहीं कुछ और जरुरी सामान तो नहीं छुट रहा’. कमरे की हालत जर्जर थी. मिट्टी की दीवार, शहतीरों पर टिके खपरैल कभी भी गिर सकने की हालत में थे. भारी-भरकम आदम के जमाने का पंखा लटक रहा था. ‘जब भी चलता है चूं-चां किये घूमता ही नहीं , वह भी कितना ? अरे ! इसके घुमने से ज्यादा...