“बाप रे !” मेरे मुह से चीख निकाल
पड़ी. वह हंसने लगा. मैं उसकी तरफ देखने लगी, चेहरे का रंग बता रहा था कि वह बहुत
प्रसन्न था. वह मेरी तरफ पलटा, उससे नजर मिलते ही मुझे हंसी आ गयी.
“आओ उधर चलते हैं, जहाज के पीछे की
तरफ” वह मेरा हाथ पकड़कर आगे-आगे चलने लगा. मैं उसके पीछे-पीछे खींचती चली गयी.
अब हम जहाज के सबसे पिछले हिस्से के
ग्राउंड फ्लोर वाले चहारदीवारी के पास थे. इंजन के घड़घड़ाहट की आवाज आ रही थी. वहीँ चहारदीवारी के
बाहर की तरफ एक छोटी नाव लटकी हुई थी. वहीँ हम दोनों कुछ देर तक खड़े रहे. जहाज के
इंजन के अलावा वहां शांति पसरी हुई थी. मैं उस लड़के के बारे में सोच ही रही थी कि
आगे वह क्या करने वाला है? इतने में देखते ही देखते वह जहाज के बाहरी सिरे पर लटकी
उस छोटी सी नाव पर उतर गया.
“नहीं ...नहीं
...तुम उधर मत जाओ ... गिर जाओगे”- मेरे मुह से चीख सी निकल पड़ी.
“यहाँ आओ न
तुम भी”- उसने अपना हाथ मेरी तरफ बढाया.
“नहीं चंदू...
मैं नहीं आउंगी... मुझे डर लग रहा है”-मेरे मुह से बोल तो फूटे लेकिन पांव उसकी
तरफ बढ़ते चले गए. मैं न चाहते हुए भी उस चहारदीवारी पर चढ़ी और रस्सियों के सहारे
लटकते हुए उसके पास चलती चली गयी. जैसे वह गया था. वह मुझे चुम्बक की भांति खींच
रहा था. ओह ! तभी अचानक मेरे मुह से उसका नाम ‘चंदू’ निकाल गया था. शायद, मैं उसमे
काफी दिलचस्पी ले रही थी. मुझे ऐसा लग रहा था मानो वह अल्लाउदीन है और मैं उसका
चिराग.
चारो तरफ अँधेरा छा गया था. पूरे
वियावान समुद्र में सिर्फ जहाज पर ही प्रकाश दिखाई दे रहा था. तभी मैंने महसूस
किया कि मैं चहारदीवारी लांघकर उस छोटी सी नांव में आ चुकी हूँ . जहाज अपने तेज
रफ़्तार से चली जा रही थी. डर के मारे मेरा बुरा हाल था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे
जाल में फंसी एक मछली को होता है. मैं उससे से लिपट गई. “चंदू मुझे डर लग रहा
है...चलो न उपर चलते हैं” मुझे कंपकंपी होने लगी थी.
वह
कुछ नहीं बोल रहा था. बस मेरी आँखों में लगभग झांकते हुए अपने सामने की तरफ दूर
कहीं देखने लगा. मैंने उसकी आँखों में देखा ... उसकी आँखे आश्चर्य से फटी पड़ी थीं.
चेहरे का रंग उड़ा-उड़ा सा लगने लगा. मैंने उसके माथे पर धीरे-धीरे निकलते पसीने को
बूंद का रूप धारण करते देखा. उसकी इस यथा स्थिति का कारण जानने के लिए जब मैं अपने
विपरीत दिशा में मुड़ी तो मेरे होस उड़ गए.
इससे
पहले कि मैं चिल्लाऊँ... चंदू ने मेरी जुबान पर लगाम लगा दिया. और चुपचाप जहाज के
पिछले सिरे पर उस छोटी सी नाव जिसमे हम पहले से ही मौजूद थे, में दुबक जाने के लिए
कहा.
जब
से यात्रा शुरु हुई थी तब से लेकर अबतक हम लोगों या किसी भी यात्री के सामने किसी
प्रकार की कोई भी मुसीबत पेस नहीं आयी थी. बहुत ही सुमंगल और मौज-मस्ती से दिन-रात
कट रहे थे. लेकिन अभी मैंने जो दृश्य देखा उससे यही प्रतीत होने लगा कि हमलोगों के
उपर मुसीबतों का पहाड़ टूटने वाला है. विचित्र और डरावनी आकृतियों वाले हमारा पीछा
कर रहे थे. रात के अँधेरे में वो और भी भयानक लग रहे थे. वे काफी संख्या में हैं, उनकी
डरावनी आवाज सुनकर ऐसा मुझे एहसास हुआ.
जहाज अपनी रफ़्तार से आगे अपनी मंजिल
की तरफ बढ़ती चली जा रही थी. चंदू का हाथ अभी भी मेरे मुह पर ही था. मैं शोर न कर
सकूं इसलिए उसने ऐसा किया था. लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं करने वाली थी. क्योंकि
मैं इतना डर गयी थी कि मेरे कंठ से आवाज निकलना मुस्किल था. और एक कारण यह भी था
कि मैं उन दानवों की हर क्रिया-कलाप देखने में मशगुल थी, साथ ही, यह भी मेरे दिमाग
में घूमने लगा था कि, मम्मी-पापा का क्या होगा ? इस समय तो वे आर्केस्ट्रा में
थिरक रहे होंगे. मैंने जहाज और इन यंत्रों की आवाजों के बीच से छन-छनकर आ रही
आर्केस्ट्रा की मधुर संगीत को सुनकर अंदाजा लगाया.
उस छोटी से नाव में छुपकर हम दोनों उन
दैत्यों की हर हरकत पर अपनी नजर टिकाये हुए थे. सहसा उन सभी यांत्रिक दैत्यों से
तेज प्रकाश हुआ जिसमें जहाज और हमारी नाव पूरी तरह नहा गए. हमने उन सभी को एक-एक
कर जहाज के उपर छलांग लगाते हुए देखा. डर के मारे हमें एकबार फिर उसी नाव में
दुबकना पड़ा. इसके बाद हम उनके किसी भी क्रिया-कलाप को देखने का साहस नहीं जुटा
पाए. हम काफी देर तक उसी अवस्था में छुपे रहे.
अब हमें किसी प्रकार की आवाज़ नहीं
सुनाई दे रही थी. स्थिति का जायज़ा लेने के लिए चोरों की भांति धीरे-धीरे अपने-अपने
सिर को नाव से बाहर निकालें . वियावान, भयानक काली रात के सिवाय हमें कुछ नहीं
दिखाई दे रहा था. हम दोनों, जहाज में टंगी छोटी नाँव में नहीं बल्कि समुद्र की सतह
पर तैरती नाँव में थें. जब हमने महसूस किया कि हमारी नाँव समुन्द्र की बाहरी सतह
पर तैर रही है, तो हमारी धमनियों का रक्त सूख गया. बिजली से भी तेज़ झटका लगा. हम
चीखने चिल्लाने लगें. मैं ऐसे चिल्ला रही थी मानों मेंरी सुध-बुध मुझसे दूर हो गयी
हो. मुझे बस अपने मम्मी-पापा के पास जाना था. इस लिए उस छोटी नाँव से वियावान
समुद्र में छलांग लगा दी. मैं तैर कर अपने उस जहाज के पास जाना चाहती थी, जो कहीं
भी नज़र नहीं आ रही थी.
“पागल
हो गयी हो तुम?”-समुद्र में कूदते चंदू मुझपर चिलाया.
मैं डूबने
लगी, मेरे हलक से ‘बचाओ...चंदू... चंदू मुझे बचा लो’ की हल्की चीख निकलने लगी.
“अपना
हाथ दो... नैना... हाथ बढ़ाओ” -चंदू चिल्ला रहा था.
मेरे डूबने की
प्रक्रिया में तेज़ी आती गयी, क्योंकि मैं लहरों के साथ नाव से दूर होती चली गयी.
मेरे हाथ अब वहाँ तक नहीं पहुँच सकते थें. मैं पानी पीने लगी. तभी चंदू नाव पर रखी
पतवार मेरी तरफ उछाला. जिसे मैं आसानी से पकड़ सकती थी. इस प्रकार पतवार पकड़कर मैं
मौत के मुंह में जाकर वापस लौट आयी.
अब
मैं नाँव में पेट के बल लेटी पड़ी थी. चंदू मेरी पीठ दबा रहा था, ताकि जो पानी पी
हूँ वह बाहर निकाल जाये. लेकिन, अभी मेरे पेट में उतना पानी नहीं गया था. क्योंकि
एक दो बार ही डूबकी लग पाई थी.
चंदू
मुझे डांटने से नहीं चूका -“मूर्ख हो तुम... तुम क्या समझती हो... केवल तुम्हारे
ही मम्मी-पापा बिछड़े हैं, मेरे नहीं?... वो भी उसी जहाज में थें...ये नहीं सोचती
कि वे किस मुसीबत में होंगे?... पता नहीं दानव उन्हें छोड़ेंगे भी या नहीं ?...
क्या समुन्द्र में कूदने से तुम्हारे मम्मी-पापा मिल जाते ?... अरे मर जाती तुम,
तब भी नहीं मिलते वें... क्योंकि होनी तो अपना काम करके चली गयी... सोचो अगर वो
करके नहीं जाती तो जहाज के दीवाल पर कसकर बंधी नाँव कैसे गिर जाती ?... अगर वो
नहीं करती तो हमें तभी पता चला होता, जब नाव समुन्द्र में गिरी थी. अरे, हमें तो
यह भी नहीं पता लगा कि नाव कब और कहाँ निकल गयी?... इतना सब होने के बाद भी तुम
मूर्खता कर रही थी?...”
मेरे आंसुओं की धार तेज़ होती जा रही
थी. उसकी बातें सुनकर मैं सिसकियाँ लेने लगी.
“रो मत नैना...भगवान्
पर भरोसा रखो... सब ठीक हो जायेगा. उन तारों को देखो कितने खुश हैं. कितना आनन्द है इन तारों में... शायद वे तुम्हें
ओर तुम्हारी मूर्खता को देख कर हंस रहें हैं.”-वह असमान की तरफ देखते हुए बोला.
मेरी
नज़र असमान की तरफ उठती चली गयी. भयानक काली रात को भी उन तारों को चमकते देखकर
मुझे कुछ सांत्वना मिली. साहस का प्रवेश होने लगा. मौत से लड़ने की इच्छा जागृत
होने लगी. मैंने चंदू की तरफ देखा वह मुस्कुरा रहा था.
चारो तरफ फैली डरावनी रात में
समुन्द्र सो सा गया था. हमारे पास एक छोटी नाँव भर थी. जो हम दोनों को साहस और
उत्साह के साथ ढो रही थी. जबकि उसे अच्छी तरह पता है कि-‘कब जानलेवा तूफ़ान उठे और हम
सभी को अपने में समाहित कर ले. फिर भी वह अपने कर्तव्यपालन से पीछे नहीं हट रही
थी. इसलिए हमने भी अपना इरादा पक्का किया और अपने आपको समुद्र के हवाले कर दिया.
हमें अब कोई डर न था. हम जानते थे कि कभी भी वह हमें अपने आगोस में ले सकता है.
हम
दोनों इतने डरे हुए थे कि डर भी मर चुका था. कहते हैं न किसी भी चीज की एक सीमा
होती है और सीमा पार होते उसका अस्तित्व मिट जाता है. आदमी उम्मीदों पर जिन्दा
रहता है और जब उम्मीदें ही मर जाएँ तो जीने का औचित्य क्या, फिर तो डर बहुत छोटी
चीज हो जाती है. हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही था. हमारे बचने की कोई उम्मीद नहीं थी.
हालांकि चंदू ने उम्मीद जगाने का भरसक प्रयास किया. वह मुझे तरह-तरह से समझाने की
कोशिश करता रहा. उसने मुझे एक अभिभावक की तरह सम्हाला. अपनी बाँहों में भरकर मुझे
थपकियाँ भी, माथे पर चूमा भी. अपने सीने से भी लगाया. इसी बीच में मुझे एहसास हुआ
कि इतना प्यार मुझे कभी नहीं मिला.
जब मैं चुप हो गयी थी. मेरे माथे से
चिंता की लकीरें मिट गयी थीं. लगने लगा कि अब चंदू ही मेरा सबकुछ है. मेरा एक हाथ
चंदू के एक हाथ में था उसकी अंगुलियां हरकत कर रही थीं. स्पर्श पाकर मैं अन्दर ही
अंदर थरथरा उठी. मैंने उसकी आँखों में देखा उसका इरादा नेक न था. मेरी पलकें झुक
गयी. चंदू का साहस बढ़ा. वह मुझे नाव में लेटकर मेरे उपर झुकने लगा, मैं इंकार न कर
सकी. मैं आसमान में तारों को देख रही थी और तारे घूरते हुए हमें देख रहे थे. तभी
समुद्र में हलचल हुई. शायद कोई मछली अंगड़ाई ले रही थी. नाव अपने स्थान पर हिलकोरे
ले रही थी तभी मैंने महसूस किया कि चंदू का एक हाथ मेरे जांघों के बीच रेंग रहा
है. मेरे दोनों जांघ आपस में सख्ती से भींच गए. धमनियों में रक्त का संचार बढ़ गया
और धड़कन तेज हो गयी. सांसो में अपने आप ही गति आ गयी थी.
यह पहला मौका था जब मैं ऐसी स्थिति से
गुजर रही थी. हाँ मम्मी-पापा को ऐसा करते हुए जरुर देखी थी. शयद यही वजह रही कि
मैं उसे मना न कर सकी. मैं जानना चाहती थी कि आखिर इसमें ऐसा क्या है ? चंदू अपनी
मजिल पा चूका था. इसका एहसास मुझे तब हुआ जब उसके सुर्ख होठ मेरे नरम होठो को
सुर्ख करने लगे. अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे फ्राक के नीचे से अंडरवियर गायब
है. मुझमे मेरा शर्म उत्पन्न होने लगा. ऐसा लगा मानो सबकुछ लुटा जा रहा है. मेरे
दोनों हाथ जांघों के बीच जाकर सुरक्षा कवच बन गये. लेकिन चंदू उसे हटाने में सफल
रहा. क्योंकि उसके होठ और मेरे अविकसित चोटियों को सहलाता हुआ उसका हाथ मुझे
आनंदित कर रहे थे. अब मैं भी उसका साथ देने लगी थी. मेरे होठ उसके दोनों होठो के
बीच पिसे जा रहे थे, और उसके हाथ मेरे हर उस कोमल अंगो पर रेग रहे थे जहाँ से मैं
भरपूर आन्दित और उत्तेजित हो सकती थी. उसकी गर्म सासों ने मुझे झकझोर कर रख दिया
था. मेरी सभी भावनाएं पिघलने लगी थी. मैंने उसे अपनी बाँहों में कस लिया और
सिकुड़ती चली गयी. चंदू भी काफी आन्दित हो रहा था. ऐसा मैंने उसके हाव-भाव को देख
कर महसूस किया. उसके होठ बारी-बारी से मेरे शरीर के हर हिस्से को चुमते हुए जांघों
के बीच स्थिर हो गए. अब मेरे शरीर की हर नसें वीणा की तार की तरह तन गयी थी और
उसके हर स्पर्श से एक नयी झंकार होने लगी.
जारी ..........
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