‘मुझे अब एक पल भी इस घर में नहीं रहना...जा रही हूँ मैं… सबकुछ छोड़कर…
हाँ-हाँ सब कुछ ! लेना तो मुझे एक साड़ी भी नहीं… लेकिन, ना लूँ तो पहनूंगी क्या ?
अपने गहने ! कैसे छोड़ दूँ ? ये तो मेरे हैं. खाक मेरे हैं ? अरे, जब पैदा करने
वाले मेरे नहीं रहे, तो अब इन गहनों से क्या सरोकार ? और क्या भरोसा कि जहाँ जा
रही हूँ वहां भी मेरा कोई अपना होगा ? भांड में जाये सब... अब कुछ नहीं सोचना
मुझे... बस, अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी. और…और अनुपम तो मेरा अपना है. वह जो भी
करेगा, मेरे भले के लिए ही करेगा. मुझे उसपर भरोसा करना चाहिए, और कोई रास्ता भी
तो नहीं’- ज्ञान्ति के मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे. और उसके हाथ-पांव
इधर-उधर भागकर अपना काम करने में लीन थे. जब कपड़े और गहनों से, बैग ठसाठस भर गया
तब वह कुछ शांत हुई. कमरे में इधर- उधर नजर दौड़ाई, ‘कहीं कुछ और जरुरी सामान तो
नहीं छुट रहा’.
कमरे की हालत जर्जर थी. मिट्टी की दीवार, शहतीरों पर टिके खपरैल कभी भी गिर सकने की हालत में थे. भारी-भरकम आदम के जमाने का पंखा लटक रहा था. ‘जब भी चलता है चूं-चां किये घूमता ही नहीं , वह भी कितना ? अरे ! इसके घुमने से ज्यादा तो उसने उस कमरे में हाथ का पंखा घुमाया होगा’. गोबर और मिटटी की गंध को महसूस किया उसने. ‘कल ही तो लीपा था पुरे घर को.. लीपते समय उसने अकेले ही टीन की बनी आलमारी को दूसरी तरफ खिसकाया था. पलंग के नीचे वह नहीं लीप पायी होती, अगर उसका पति गुरसेन नहीं आया होता... सबलोग उसे गुरसेन क्यों बुलाते हैं..? जबकि उसका नाम तो उग्रसेन है... कितना हट्टा-कट्ठा और गबरू जवान है उसका पति. अकेले ही उस भारी-भरकम पलंग को उठाकर खड़ा कर दिया था’. गुरसेन का ध्यान आते ही ज्ञान्ति ने उसकी तरफ देखा- भैंसे जैसा सो रहा था उसी पलंग पर. लालटेन की रोशनी सीधे उसके मुह पर पड़ रही थी. चेहरे पर बैठे दो मच्छर खून साधना में लीन थे. नथुनों का फूलना-पचकना जारी था. मुह से लार निकलकर गालपर ढुलक गया था. ‘मुझे नफरत हो गयी है इस चेहरे से... मुझे नहीं रहना इसके साथ... आखिर मेरे भी तो कुछ अरमान हैं’ – वह खीझ भरी उधेड़बुन में थी, तभी गुरसेन ने करवट लिया. उसके आँखों के सामने ही उसका चेहरा दूसरी तरफ घूमा. कितना मासूम, सीधा-साधा, भोला-भाला. वह तो उसे भोलूराम ही कहकर बुलाती जब उसपर गुस्सा करती या प्यार जताती...प्यार..? प्यार तो कभी की ही नहीं अपने भोलूराम से, हाँ ! दया जरुर आती उसके भोलेपन और बैलेपन पर. लेकिन अब, नफरत करती है...नफरत ..सिर्फ नफरत ! इसलिए वह उसे हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ देना चाहती है.
मोबाइल की घंटी बजी...देखा, और रिसीव किया... अनुपम की आवाज आयी- “क्या कर रही हो, बारह बजने वाले हैं...बिजली कभी भी आ सकती है, और सुबह छह बजे से पहले ही स्टेशन पर पहुंचना है...जल्दी करो.” “अ..हाँ ! मैं बस निकल ही रही थी” - उसकी तन्द्रा टूटी.
“जल्दी करो मैं ट्यूबेल के पास हूँ”- फोन कट गया.
ज्ञान्ती को अभी तक थोड़ा भी डर नाम की चीज छू नहीं पायी थी. वह झट से अपना भरा हुआ बैग उठाई और दरवाजा खोलकर कमरे से बाहर निकल गयी. सहसा ! ठिठकी, पीछे मुड़कर देखा, गुरसेन अभी भी सो रहा था... ‘आज दिनभर खेतों में काम किया है, थक गया होगा. तभी तो वह ढंग से खाना भी नहीं खाया. कहाँ आठ-दस रोटी खाता था केवल पांच रोटी में ही बम बोल दिया. आज खीर भी बनाई थी, सोचा आखिरी बार उसे उसकी पसंद की चीज खिला दूँ...फिर भी नहीं खाया. मत खाए, मुझे क्या ? मैं तो जा रही हूँ... जा रही हूँ मेरे प्यारे भोलूराम’ ! – वह चिल्लाना चाहती थी. इतना तेज, कि उसकी आवाज गुरसेन की कानों तक पहुँच जाये और वह जागकर देखे कि.. ज्ञान्ती जा रही है.
इसी उधेड़बुन में वह कब गुरसेन के पास आ गयी पता ही न चला. अपने आँचल से खून-साधना में लीन मच्छरों को भगाया और, झुककर गौर से उसके चेहरे को देखने लगी. उसने देखा कि गुरसेन की आखें गीली हैं. उसे लगा कि वह रो रहा है इसलिए उसके सिर पर हाथ फेरते हुए टोह ली. जब उसे पूरा विस्वास हो गया कि वह गहरी नींद में है तब वह सोचने लगी कि – ‘इसमें गुरसेन का क्या दोष है ? उसने तो कभी कुछ कहा भी नहीं उससे, वह तो बस अपने काम से काम रखता है. बस ! यही तो दोष है उसका...नहीं-नहीं ...अब मैं इसके पलड़े नहीं पड़ने वाली...जा रही हूँ मैं.. हाँ भोलूराम ! सुन रहे हो न.. मैं जा रही हूँ हमेशा के लिए तुम्हे छोड़कर’ ! आँखों से आसुंओं की एक धारा सी फूट पड़ी. वह उसके होठों को चूम लेना चाही, लेकिन लार अब भी उसके गाल पर चिपके हुए थे इसलिए माथे पर चूमा और बैग उठाकर आँगन पार करके, घर के पिछले दरवाजे से बाहर निकल गयी. घर की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा. बस कानों में बूढी सास की खर्राटे की आवाज सुनाई पड़ी.
गाँव में चारो तरफ अँधेरा फैला हुआ था. चार दिन बाद दिवाली थी इसलिए चाँद भी नहीं निकला था. बिजली अभी भी नहीं आई थी, अबतक तो आ जाती थी. यह अलग बात है कि जल्दी चली भी जाती थी. हालाँकि गाँव वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि- बिजली कब आती है और कब जाती है. सदियों से अँधेरे में रहने की आदत जो है. खैर, जब वह घर से निकली तो पहले-पहल कुछ भी न दिखा. लालटेन की चमक से आखें मिचमिचाई हुई थीं. उपर से आखों में आंसू का गीलापन. लेकिन कुछ ही देर में उसे अंधेरे में भी गाँव की गली के कंकड़- पत्थर और घास नजर आने लगे.
वह जल्द से जल्द गाँव से बाहर निकल जाना चाहती थी. इसलिए बैग को सिर पर रख लिया और साड़ी को थोड़ा उपर उठाकर कमर में खोंस ली. वह लम्बे-लम्बे डग भरकर चल रही थी तभी दो-तीन कुत्ते भौंकते हुए उसके पीछे पड़ गए. डर के मारे पूरा शरीर कांप गया. इतने में मंगरू काका ने खाट पर सोते-सोते ही अपनी लाठी जमीन पर दो-तीन बार पटका और दुर..दुर..दुर की आवाज लगाई. कुत्ते कूं..कूं करते हुए दूसरी गली में फिर से भौंकने लगे. वह अब भी वहीँ दम साधे खड़ी रही. घुटने कांप रहे थे. मोबाइल को उसने ब्लौंज में खोंस रखा था बैब्रेसन मोड़ में करके. इसी बीच अनुपम का एक और कॉल आया. मोबाइल ब्लौंज में ही कांप उठा. ब्लौंज में घनघनाते मोबाइल से, एक बारगी तो डर के मारे पूरा जिस्म थरथरा गया. माथे पर पसीने की बूदें निकल आयीं. पल्लू से मुह पोछी और डउका बाबा को गोहराया, तब जान में जान आई. गाँव वालों की मान्यता है कि डउका बाबा का नाम लेते ही सारी बाधाएं दूर हो जाती हैं. भूत- प्रेत तो आस-पास भी नहीं भटकते.
जब वह ट्यूबेल के पास पहुंची, अनुपम पहले से ही वहां उसका इंतजार कर रहा था.“कितनी देर लगा दी”
कुछ न बोली, बस हांफे जा रही थी. वह चाहती थी कि थोड़ा सुसता ले, लेकिन अनुपम ने कहा- “यह बैठने और सुस्ताने का समय नहीं है, हमें स्टेशन पर जल्दी से पहुंचना होगा, देखो ! एक बजने वाले हैं”.
“कितनी दूर होगा स्टेशन यहाँ से” ? -ज्ञान्ती ने पूछा.
“यही कोई तीन-चार किलोमीटर ! लेकिन हमें खेत-खेत होकर जाना होगा, इसलिए समय थोडा ज्यादा लगेगा”.अनुपम उसका बैग उठाया और सिर पर रखकर आगे-आगे चलने लगा. ज्ञान्ती भी उसके पीछे-पीछे भागने लगी.
भयानक अँधेरी काली रात, उपर से हल्के कोहरे की धुंध, खेतों में धान की कटाई हो रही थी, कुछ खेत कट भी गए थे. शीत के कारण उनके पैर गीले हो गये. चप्पलों पर मिट्टी चिपकने से चला नहीं जा रहा था. उसने, अनुपम और अपना चप्पल हाथ में ले लिया और साड़ी को घुटने तक मोड़कर कमर में खोंस ली. ठंढी हवा कमर तक पहुँच रही थी. वहां तक, जहाँ वह हमेशा गर्मी का एहसास करते आयी थी. अब वहां भी उसे कठुआने जैसा लग रहा था.
‘उस बरस भी इसी प्रकार का मौसम था, दिवाली भी और गोधन (गोबर्धन) पूजा भी. कितने धूम-धाम से मनायी थी वह अपने सहेलियों के संग. दिवाली से ज्यादा, उसे गोधन पूजा में मजा आता... जब गाँव की सारी लड़कियां गोधन बाबा का अंडकोष पहरुआ से कूटती थीं. फिर एक महीने तक पीड़ियाँ की धूम...नाचना, गाना-बजाना, हंसी-ठिठोली और बहुत कुछ. उसे याद आया कि अधिकतर लड़कियों का कुंआरापन इसी पीड़िया में टूट जाता है. उसका भी तो उसी में भंग हुआ था, जब वह सोलह वर्ष की थी. वह माँ से बताकर निकली कि पीड़िया में जा रही है, लेकिन वह वहां नहीं गयी. उसकी सहेली रागिनी भी उसके साथ थी. रागिनी ने ही मनोज से उसका मेल कराया था. उस रात वह पीड़िया में न जाकर मनोज के पास गयी थी. तालाब के किनारे अरहर के खेत में. कितनी बड़ी गलती की थी वह माँ से झूठ बोलकर. जबकि माँ ने हमेशा उसको समझाया था कि- कुछ ऐसा-वैसा न कर-करा लेना जिससे तेरी बाबू की नाक कट जाये. नाक ही तो कटा रही थी वह उस दिन. नहीं-नहीं इससे नाक थोड़ी कटती है. ये तो सब करती हैं ...पिंकी, माया, सोनी, ममता, कौन बचा है इससे ? सबके बारे में जानती हूँ...अरे, जमीदार की लड़की तो अपने घर तक बुलाती है सलीम को...और सलमा भी तो है मुल्ला जी की, दिनभर बुर्के में रहती है...क्या उसने उसको नहीं देखा है, अरविन्द से मिलते हुए ? इसकी तो वह चश्मदीद गवाह है. कोई नाक-ओक नहीं कटती... कटती भी है तो कटे...रागिनी भी तो उसदिन विनोद के साथ गयी थी. वैसे भी ! उसका कौमार्य तो कभी था ही नहीं’. उसने बड़ी औरतों से सुन रखा था कि, ‘जिसका खून नहीं निकलता समझना चाहिए कि वह कुंवारी नहीं है’. उसका भी तो नहीं निकला था उस दिन. ऐसे में जब वह जन्म से ही कुंवारी नहीं फिर उसका क्या कुंवारापन भंग होगा.
“जल्दी-जल्दी चलो ! अभी काफी दूर चलना है”
अनुपम की आवाज उसके कानों से टकरायी तब उसकी चेतना वापस लौटी. खुद से शरमा गयी वह. ‘धत् ! क्या-क्या, उल्टा-सीधा सोच रही हूँ’ ?
अब वह तेज-तेज चलने लगी. उसने दायें, बायें और पीछे मुड़कर देखा. दूर-दूर तक वियावान अँधेरे के सिवा कुछ भी न था. वातावरण कितना शांत था. उसे लगा कि, ‘पुरे भूमण्डल में अकेली परी है वह.. जहाँ चाहे, वहां पंख पसारकर विचरण कर सकती है’. आजादी की पराकाष्ठा का अनुभव हुआ उसे. लम्बे-लम्बे डग भरने के कारण वह अनुपम के पास तक पहुँच गयी. दोनों भागे जा रहे थे... अपने गंतव्य की तरफ.
उसे याद आया कि गोधन पूजा के बाद ही तो उसकी शादी हुयी थी उग्रसेन से. ‘कितना मर्दाना लगा था वह, जब उसके घर बारात लेकर आया था. गठीले बदन वाला छैल-छबीला... और तो और, दहेज भी नहीं लिया था उसके घर वालों ने’. ऐसे लड़के के लिए दहेज न लेने पर माँ ने बाबू से पूछा था. तब बाबू ने बताया कि- ‘उसकी सास की बस एक ही इच्छा है. लड़का थोड़ा सीधा-साधा है लेकिन खेतों में खूब काम करता है. वह भी बूढी हो चली है और पिता भी नहीं है ऐसे में तो बस, उसकी सेवा और घर सम्हालने के लिए घर में बहू आ जाये इतना ही काफी है. दान-दहेज लेकर क्या करेगी’. ‘और तुम तो जानती ही हो कि अपनी हालत भी कुछ ठीक नहीं है. इसके बाद अभी तीन लड़कियां और हैं व्याहने को, अब ऐसा ही मौका देखकर एक-एक को किनारे नहीं लगायेंगे तो कैसे काम चलेगा’?
सही ही तो कह रहे बाबू, ‘गरीब घर की लड़कियों को बड़े सपने नहीं देखने चाहिए. उन्हें कोई हक़ नहीं कि उनके सपनों का राजकुमार उन्हें मिले’. वैसे भी क्या कमी है मेरे उग्रसेन में ?
वह भागी चली जा रही थी अनुपम के पीछे-पीछे एक ऐसी दुनियां की उम्मीद में, जहाँ उसे वह सब मिलेगा जो वह चाहती है. ‘यह उम्मीद ही तो है, जिससे आदमी जिन्दा रहता है. उम्मीद न हो, तो आदमी कब का मर गया होता. वैसे अब भी कहाँ जिन्दा है आदमी ? यहाँ तो बस मुर्दे रहते हैं मुर्दे. सच ही तो है, हैवानियत को देखकर भी चुप खड़े रहने वाले, आखिर मुर्दे नहीं तो क्या हैं’ ? उसे याद आया कि कैसे अर्चना भाभी को पांड़े, पंड़ाईन और उनके लड़के ने मिलकर कमरे में जिन्दा जला डाला था. ‘क्या गलती थी उनकी ? यही न कि वह एक गरीब घर की बेटी थीं और नौकरी-पेसा वाले लड़के के लिए उनके माँ- बाप ने मुहमाँगा दहेज नहीं दिया था. खैर ! वे तो हैवान निकले, पर इन्सान भी कहाँ थे वहां ? क्या वे मुर्दे नहीं थे ? जब पुलिस ने पूछ-ताछ की. तब किसी का मुह नहीं खुला, जबकि सब जानते थे. कोई भी तो आगे नहीं आया पुरे गाँव से. सब के सब मुर्दे थे. क्या मेरे बाबू भी ? हाँ शायद वह भी... लेकिन उनका क्या दोष ? वे भी तो गरीब ही थे. उन्होंने तो एक ही लाईन यह बात कह दी थी कि – हमें बड़े लोगों के बीच में नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि हम जाति और पैसे दोनों से उनसे काफी नीचे हैं’.
“हमें यहाँ थोड़ी देर आराम कर लेना चाहिए” – अनुपम हांफते हुए बोला, बैग ढोते-ढोते उसकी हालत खराब हो गयी थी.
“अभी कितना दूर और चलना पड़ेगा” ? -ज्ञान्ती ने पूछा.
“शायद, आधी दूरी तय कर लिया है हमने.. आओ यहाँ बैठो” – उसने ज्ञान्ती का हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया.
वहां एक कुएं का चबूतरा था वहीँ दोनों आराम करने लगे.
“तुम्हे डर तो नहीं लग रहा न” ?
“नहीं !.. हाँ .. थोड़ा-थोड़ा...”
“डरो नहीं, जो होगा अच्छा होगा” – उसने ज्ञान्ती के कंधे पर हाथ रखकर अपनी तरफ खींच लिया.
वह भी उसके बाँहों में सिमटती चली गयी – “क्या हम लोग सहीं कर रहे हैं” ?
“देखो ! सहीं-गलत कुछ भी नहीं होता, अपने-अपने नजरिये में सब सहीं होता है. और सबको सुख-चैन से रहने का अधिकार है इस धरती पर, जिसके लिए आदमी कठोर निर्णय लेता ही है”.
उसने अनुपम की आँखों में झाँका- कितना आत्मविश्वास झलकता है उसमे, उसने मन ही मन कहा- ‘हमने अर्पित कर दिया है तुम्हे अपने आप को, अब हमें सुख मिले या दुःख.. कोई फर्क नहीं पड़ता’.
अनुपम ने मोबाइल में समय देखा. “तीन बजने वाले हैं... चलो चलते हैं”.
बैग उठाकर सिर पर रखा और चलने लगा. ज्ञान्ती ने भी चप्पलों को हाथ में लिया और चलने लगी अनुपम के पीछे-पीछे.दोनों के पैर, घुटने तक गीली मिट्टी के छीटों से भरे हुए थे. चलते तो ‘छप-चपर-छप’ की आवाज आती. अँधेरा अभी भी वैसा ही था, लेकिन उसके मौन में खलबलाहट मचने लगी थी. दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने और मुर्गे की बाग़ रह-रहकर सुनाई दे रही थी.
कितनी खुश थी वह, जब ससुराल में उसने अपना पहला कदम रखा. कितनी लड़कियां आयी थीं उसे देखने के लिए, कुछ बूढी और अधेड़ औरते भी. सबने उसकी तारीफ की थी. ‘हल्दी लगाकर मालिश होने से उसके चेहरे पर क्या चमक उभरी थी. हलके सांवले रंग में मिला हल्दी का रंग और उपर से आँखों में लगा काजल’. सच में, उसे देखकर अन्य लड़कियों में ईर्ष्या का भाव तो जरुर उमड़ा होगा. तभी तो बगल से गुजरते हुए गुरसेन को देखकर नउनिया ने कहा था – “गुरसेन बाबू जरुर छुप-छुपकर शिव बाबा को भांग-धतुरा चढाते होंगे, तभी तो ऐसी बहुरिया आयी है घर में. अरे ! का गुरसेन बाबू सही कह रही हूँ न” ?
दिन भर मुह दिखाई का रश्म अदा करते-करते थक गयी थी वह. खाना तो खाया ही नहीं गया उससे. माँ- बाबू की भी बड़ी याद आ रही थी. यह भी सोचकर डर लग रहा था कि- ‘अभी गुरसेन आएगा और जाने क्या-क्या करेगा’? एक तरफ सुहागरात का उमंग भी था तो दूसरी तरफ एक अंजाना डर भी गुलाटियां ले रहा था. लेकिन उसे कब नींद आ गयी पता ही न चला. उसे अब भी याद है कि गुरसेन उस रात कमरे में नहीं आया था.
दूसरी रात, किसी ने गुरसेन को कमरे में जबरदस्ती घुसाकर बाहर से दरवाजा बंद कर दिया. पहले तो वह इधर-उधर टहलते रहा फिर चटाई लेकर जमीन पर ही लेट गया. उसके बहुत कहने पर वह आया भी तो पलंग पर एक तरफ मुह करके सो गया.
इस प्रकार यही सिलशिला रोज का चलने लगा. वह कमरे में आता और एक किनारे मुह करके सो जाता. सुबह उठकर कब चला जाता, पता ही न चलता. फिर तो दिन भर खेतों में हाड़तोड़ मेहनत, बैलों को चारा-भूसा, और गोबर-गुथार, लगभग घर के बाहर का सभी काम उसे ही करना पड़ता. किसी से कोई बात-विचार नहीं, अगर कोई उससे बात करने का प्रयास भी करता, तो हाँ- हूँ करके निकल लेता. वह इतना सीधा और मंदबुद्धि था कि गाँव का कोई भी व्यक्ति उसे बहला-फुसलाकर अपना कोई भी काम करवा लेता. और जिस दिन, उसके लिए कोई काम नहीं होता, उस दिन वह बैलों को लेकर चराने निकल जाता.
धीरे-धीरे छह महीने गुजर गए. इस बीच में उसने कई बार कई तरह से प्रयास किया. यहाँ तक कि वह गुरसेन और अपने कपड़े स्वयं खोलकर उसके साथ सोई. पर कोई असर नहीं. उसके मन में यह प्रश्न स्वतः ही उठने लगा कि – “वह नपुंसक तो नहीं है”?
कुछ ही दिनों में, शक जब यकीन में बदल गया तब उसने निर्णय लिया कि- जब वह अपने मायके जाएगी तो फिर-फिर यहाँ नहीं आने वाली.
उसकी बूढी सास उसे बेटी की तरह मानती थी. कारण कि, उसके आने के बाद पुरे घर की तस्वीर ही बदल गयी. घर का सारा काम उसने अकेले ही सम्हाल लिया था. उसकी सास की अब साँस फूलनी भी बंद हो गयी थी. गुरसेन और उसके बीच में चाहें जो चल रह हो, पर ! उसने भी बूढी सास की खूब सेवा की. कहाँ मरने के कगार पर थी, फुदक-फुदक कर चलने लगी. घर में टोले- मुहल्ले की लडकियों का आना-जाना होने लगा था. कुछ लड़के भी आते, जो रिश्ते में देवर लगते थे. उनके बीच में खूब हंसी-ठिठोली होती. इस प्रकार, उसका दिन तो खूब अच्छे से निकल जाता लेकिन रात मानों उसकी बैरन बनी बैठी हो. हर रात उसके लिए एक युग से काम नहीं होता.इन्ही लड़के-लड़कियों में से एक अनुपम भी था, गुरसेन के चाचा का लड़का, उसकी दो बहने थीं जो उससे बड़ी थीं. एक की तो शादी भी हो गयी थी, बस गवना होना बाकी था. वे दोनों भीं दिन भर ज्ञान्ती के ही साथ ही रहतीं. सिलाई, बुनाई हंसी-मजाक और गाँव भर की उलटी सीधी बाते. अनुपम भी उन्ही में घुला-मिला रहता, लेकिन वह स्कूल भी जाता था. उन दिनों वह बारहवीं की परीक्षा पास किया था सेकेण्ड डिविजन में. ‘इसके बाद वह बी. ए. करने शहर जायेगा और फिर कलट्टरी का परीक्षा देगा. हर समय वह यही बातें क्या करता’.
अंधेरे की तीव्रता घटने लगी थी. थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव दिखा, जहाँ से कोहरे को चीरती हुई बिजली के वल्बों की रोशनी तारों जैसे टिमटिमाते हुए आ रही थी. अनुपम ने बताया कि- “स्टेशन गाँव के उस पार है, वहां जाने के लिए गाँव के बीचो-बीच से एक रास्ता गुजरा है. लेकिन हम उधर से नहीं जायेंगे. यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर रेलवे लाईन है. हमें वहां पहुंचकर पटरियों पर चलकर ही स्टेशन जाना होगा”.
“अब मुझसे बिलकुल भी चला नहीं जाता”- ज्ञान्ती ने कहा.
“बस, थोड़ी ही दूर तो है”.
“मैं पूरी तरह से थक गयी हूँ”.
“थक तो मैं भी गया हूँ”.
“थोड़ी देर रुकते हैं यहाँ पर” – ज्ञान्ती ने अपनी इच्छा जताई.
“पांच बजने वाले हैं ज्ञान्ती.. हम नहीं रुक सकते.. लोग-बाग इस समय घर से बाहर निकलने लगते हैं”.
ज्ञान्ती कुछ न बोली, खुद ही आगे आगे चलने लगी. आराम न करने देने से उसे अनुपम पर बहुत गुस्सा आ रहा था. जी में आया कि खींच के दो-तीन तमाचे जड़ दे उसके गाल पर.
गाल पर तमाचा जड़ने से उसे याद आया कि- ‘उसदिन वह नहा-धोकर अपने बालों में कंघी कर रही थी, एक छोटे से आईने के सामने खड़े होकर और कमरे का दरवाजा खुला ही छोड़ रखी थी. अचानक उसे लगा कि गुरुसेन कमरे में दबे पाँव आकर उसके पीछे खड़ा हो गया है. उसके पास होने का एहसास होते ही, अपनी आँखें बंद करके सोंचने लगी, कास ! वह पीछे से ही अपनी मज़बूत बाँहों में कसकर उसे पकड़ता और अपनी गर्म साँसें उसके गले और कानो पर छोड़ता. तभी उसने महसूस किया कि गुरुसेन की बाहें दोनों बगल से उसे जकड़ रही हैं. और हथेलियाँ गोलाइयों का नाप ले रहीं हैं. बाएं कान और गले पर गर्म साँसें पसरने लगी तो वह थरथरा उठी. यही तो चाहती थी वह. आज पहली बार वह अपने आप को पति के बाहों में पाकर समर्पित होने लगी. वह इठलाना, इतराना और शरमाना भी चाही. उसने सोंचा क्यों न दोनों एक दूसरे को तंग करें, छेड़ें, और नोक-झोक हो. इसलिए वह बोलती हुई उससे दूर हटी. “क्या कर रहे हो? छोड़ो मुझे”. बाहों को छुड़ाकर जब वह घूमी तो उसके सामने गुरसेन नहीं अनुपम था. पूरे शरीर में आग लग गयी. खुले बालों के बीच आँखों में खून तैरने लगा. उर्वशी से काली बन गयी वह. तनिक भी देर न लगी उसका हाँथ अनुपम के गाल पर जा चिपका.-चटाक...! “हरामी, कमीना, दोगला, लतमरुआ....शरम नहीं आती तुम्हें” ?.. एक ही सांस में पचासों गालियाँ बक गयी थी वह. “अभी बुलाती हूँ चाची को”. अनुपम उसका यह रूप पहले कभी नही देखा था. डर के मारे कांपने लगा, किये गए अपराध की क्षमा याचना लेकर. अगली सुबह उसे पता चला कि अनुपम बी. ए. की पढाई के लिए शहर चला गया है’.
अब वे रेल की पटरियों के बीच चल रहे थे. उजाला अपना पांव पसारने की तैयारी करने लगा था. अँधेरे की शांति में अब चिड़ियों की चहचाहट भी घुलने लगी थी. मंदिरों के भोंपू गाने लगे थे.
“जो यह पढ़े हनुमान चलीसा, होहिं सिद्धि साखी गौरीसा
तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ ह्रदय महाडेरा”
दूसरी तरफ से एक और आवाज आयी – “अल्ला आ आ...हो..अकबर....!”
उसे अपनी माँ की याद आने लगी. उसे याद आया कि ‘अनुपम के जाने के बाद उसके बापू उसे अपने साथ गाँव लिवा गए थे, माँ के पास. कई महीनों तक वहीं रही वह. सारा सुख-दुःख बताया उसने माँ से, पर यह न बता पायी कि उसका पति नपुंसक है. जब कुछ ही दिन बाद उसे पता चला कि उसकी सास ने उसे वापस बुलाने के लिए संदेशा भेजा है तो वह फफककर वह रो पड़ी थी माँ की गोद में सिर रखकर’.
“मां मुझे अब नहीं जाना वहां, कहीं और ब्याह दो मुझे.”
“ऐसा नहीं कहते बेटा. जोड़ी तो भगवान् बनाते हैं. हम कैसे ब्याह दें कहीं और तुम्हे. अब तो वही तुम्हारा घर है और गुरसेन ही परमेश्वर.”
“तुम नहीं समझती माँ...मेरा गुज़ारा नहीं हो सकता वहां.”
“गुजरा हो या न हो, गुजारा करना पड़ता है स्त्री को. उसकी नियति ही ऐसी है.”
“लेकिन मेरी नियति ऐसी नहीं है.”
“तो क्या करोगी, तालाब - पोखरा देखोगी?”
“नहीं....भाग जाउंगी.”
“कहाँ ?”
“कहीं भी.”
“जब तुमने ठान ही लिया है तो हम क्या कर सकते हैं. जा....भाग जा, लेकिन हम कहीं और नहीं ब्याह सकते तुझे. इतनी औकात नहीं है हमारी. तीन-तीन जवान बेटियां अभी भी पड़ी हैं ब्याहने को.....हे भगवान् ! किस जनम का बदला ले रहे हो. इसे तनिक भी फिकर नहीं है कि इसके इस कृत्य के बाद इसकी बहनों का कौन दामन थामेगा.”
(मां रोते हुए अपने आँचल से आंसूं पोछने लगी. उसे भी रोना आ गया था. और न चाहते हुए भी उसे ससुराल आना पड़ा था)
रेल के पटरियों पर वे दोनों इस प्रकार चल रहे थे गोया पटरियों को गिन रहे हों . एक, दो, तीन, चार, हजार और लाख, ज्ञान्ती को लगा जैसे वह रेल की पटरियां नहीं बल्कि जिन्दगी की सीढियाँ गिन रही है.
धीरे-धीरे चार साल गुजर गए. वह अब गुरसेन के साथ खेतों में जाने लगी थी. दोनों जी-जान लगाकर खेत में काम करते. उसे बस कहने भर कि देरी होती गुरसेन फटाफट उस काम को निपटा देता. अच्छी फसल होने से घर में सम्पन्नता का प्रवेश होने लगा था. भौतिक सुख-सुविधा में बढ़ोत्तरी होने लगी. उसने दिन से प्यार करना सीख लिया था, लेकिन डायन रात से अब भी उसे डर लगता. वह चिड़चिड़ी होने लगी थी. गाँव में लोग- बाग चर्चा करने लगे थे कि- ‘गुरसेनवां की मेहरी बाझ है.’ उसकी, सास से अब नहीं पटती थी. उन दोनों के बीच में कहा-सुनी और गाली-गलौज भी होने लगा था. उसी में मौका पाकर उसकी सास भी उसे बांझिन कह देती.
कोटेदार (सरकारी राशन दुकान वाला) का लड़का जब भी उसे अकेले में देखता, तो पास आकर कहता- “भौजी ! हम तो कहते हैं जांघ बदल के देखो... सब दुःख दूर हो जायेगा.”
“कुत्ता.. हरामी.. पिल्ला जा के अपनी बहिनियाँ से कहना कि जांघ बदलवा ले” – गरियाती हुई टूट पड़ती उसपर... लेकिन बत्तीसी दिखाते हुए भाग जाता वह.
इस बीच उसकी तीनो बहनों का ब्याह हो गया. बिबाह के मौके पर वह मायके भी गयी, लेकिन माँ से कोई शिकायत नहीं की. इधर अनुपम ने भी बी ए पास कर लिया और अब उसी कालेज से एम ए कर रहा है. इतने लम्बे अन्तराल में उसने कभी भी अनुपम से बात नहीं की. और ना ही अनुपम कभी साहस किया उससे बात करने का. यहाँ तक कि अनुपम की बड़ी बहन के गवना के अवसर पर भी नहीं. दोनों एक दूसरे को देखकर अपना रास्ता बदल लेते.अभी तक उस घटना (जो उन दोनों के बीच में घटी थी) की किसी को भी कानों-कान तक खबर नहीं हुई थी.
उनदिनों मोबाइल का प्रचालन धीरे-धीरे बढ़ रहा था. अपने आस-पास में सबसे पहले उसने अनुपम के हाथ में ही मोबाइल और उससे बात करते हुए देखा था. मोबाइल के प्रति जब उसकी इच्छा तीव्र हुई तो चाचाजी (अनुपम के बाबूजी) को पैसे देकर बाजार से नोकिया का मोबाइल मंगवाया. मोबाइल पर बात कैसे करते हैं ? उसने बहुत बाद में जाना, लेकिन उसमे एक सांप वाला खेल था. उसे जब भी काम से फुर्सत मिलता खेलने लगती. गेम साधना से डायन रात का प्रकोप कुछ काम होने लगा.
स्टेशन की बत्तियां अब दिखने लगी थीं. थकने और अब तो मंजिल आ गयी की मानसिकता से रिलैक्स मोड में होकर वे पटरियों पर टहलते हुए जा रहे थे. कुछ औरतें और कुछ मर्द लाईन के दोनों तरफ अपने-अपने इलाके में लोटा लिए हुए बैठे थे. उन्हें देखकर औरतें तो उठ जातीं लेकिन मर्द बड़े बेसरम होते हैं.
ज्ञान्ती अभी भी अपने सोच लोक में ही विचरण कर रही थी. उसे याद आया कि- ‘उस रात उसे नीद नहीं आ रही थी जब अनुपम की बहन के माध्यम से अनुपम का नंबर मिला था. अजीब तरह की बेचैनी थी. सांप वाला खेल भी उसे अच्छा न लगा. उसने कई बार अनुपम का नंबर डायल किया और काटा. गुरसेन उस रोज भी उसी तरह सोया था. उसे कुछ भी फिकर न थी कि, वह मातृत्व सुख के लिए तड़प रही है, कइ बार करवटें बदली वह. फिर भी नींद नहीं आयी. अंगड़ाई लेती तो हड्डियों के जोड़ो और मांसपेशियों में सुखद दरद उभरता. मन में हजारों-हजार ख्याल हिलोरे ले-लेकर उठते और आपस में गड्ड-मड्ड हो जाते.
अंततः उसने अनुपम का नंबर मिलाया. उधर से हलो...हलो की कई बार आवाज आयी. वह चुपचाप सुन रही थी... अनुपम ही था.‘वह उससे क्यों बात कर रही है ? उसे इसका जवाब तो नहीं मिला.. लेकिन मन में एक प्रश्न और उठा...क्यों न बात करे ? वह उससे बात न करे तो किससे करे ? कोटेदार के लड़के मोहना से ?... हरामी... कुत्ता... दईत्तर जैसा तो दीखता है... सांड कहीं का.’
उसका द्वन्द चल ही रहा था कि उधर से फोन आया. रिसीव की तो आवाज आयी...
“हलो !.. कौन ?.. हलो !”
“हलो..! हाँ ! मैं ज्ञान्ती.”
एक पल के लिए सन्नाटा छा गया.
“आवाज नहीं आ रही क्या..? मैं ज्ञान्ती बोल रही हूँ.”
“हाँ भौजी,.. मैं सुन रहा हूँ ... नमस्ते !”“हाँ ...हाँ ..! कैसे हो ?”
“मैं ठीक हूँ ...लेकिन आज भी शर्मिंदा हूँ... मुझे माफ़ कर देना भौजी.”
“अरे ! नहीं .. नहीं, ऐसी बात नहीं करते... मैं तो कब की भूल चुकी हूँ ओ सब.”
उस दिन रात वाली डायन मर गयी. अनुपम उसे रोज फोन करने लगा. जिस रात उसका फोन नहीं आता वह खुद ही उसका नंबर डायल कर देती. खुद से ज्यादा उसपर भरोसा करने लगी थी वह. इसलिए उससे वह सारी बात शेयर करने लगी जो वह अबतक किसी से नहीं कर पायी थी.
उसे याद आया कि उसने एक बार अनुपम से कहा था कि – “शादी करोगे मुझसे ?” इसपर वह तरह-तरह की दलीलें देकर अपनी मजबूरियां बताने लगा था. वह उसे सांसत में नहीं डालना चाहती थी इसलिए उसकी यह उम्मीद धरी की धरी रह गयी. लेकिन उसने कई बार झुंझलाहट में यह कह दिया था कि- “वह यहाँ नहीं रहेगी... भाग जाएगी ..या मर जाएगी.”
एक दिन अनुपम ने उससे बताया कि ‘उसके कालेज में उसका एक मित्र है राजेश, जिसका गाँव दूसरे जिले में है यहाँ से काफी दूर, जिससे वह सारी बातें बताता है. बातो ही बातों में राजेश ने अनुपम से बताया था कि – उसके गाँव में एक पंडीजी हैं. जिनकी पत्नी का देहांत शादी के कुछ ही दिनों बाद हो गया था. वे पत्नी से इतना प्रेम करते थे कि शादी न करने का निर्णय लिया. लेकिन ढलती उम्र में अकेलापन बड़ा कष्टदायी होता है. अभी उनकी उम्र भी ज्यादा नहीं है. यही कोई चालीस के आस-पास के होंगे. जमीन जायदाद भी बहुत है. लेकिन कोई नहीं है उसे भोगने वाला... अब वे चाहते हैं कि शादी कर लें. उन्हें कैसी भी लड़की मिल जाए तो स्वीकार है यहाँ तक कि अंतर्जातीय विवाह से भी उन्हें परहेज नहीं है.’
अनुपम ने उसे बताया कि ‘राजेश ने उनसे बात कर ली है. बस तुम हाँ कर दो तो बात बन जाएगी.’ वह अनुपम की सारी बातें चुप-चाप सुनती रही.. उसे अच्छी तरह याद है कि इसपर उसने कुछ नहीं बोला था.
कई दिनों तक उसके मन में अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा. एक तरफ विचारों से विचारों का युद्ध, परम्परा से विद्रोह, माँ-बाप की नाक, गाँव-जवार, जाति- बिरादरी, टोला-मुहल्ला और उसका भोलूराम. एक-एक करके सब उसके मानस पटल पर आदर्श और यथार्थ के रूप में आते-जाते रहे. वहीँ दूसरी तरफ उसकी अपनी अस्मिता, स्वतंत्रता और स्वछंदता, उसे अतल गहराई से बाहर निकालने के लिए उसका कान भरते रहे. फिर भी वह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि क्या करे ?
आखिरकार कई दिनों के जद्दोजहद के बाद उसने अनुपम को फोन करके बताया कि- ‘वह तैयार है.’
इसके बाद ही यह योजना बनी कि – ‘पास के स्टेशन तक पंडीजी और राजेश आ जायेंगे सुबह की छह बजे वाली गाड़ी से. और इधर अनुपम ज्ञान्ती को लेकर रातों-रात स्टेशन तक पहुँच जायेगा. कहीं से भी किसी को खबर नहीं होगी कि- ज्ञान्ती कहाँ गयी ? किसने भगाया ज्ञान्ती को ? अनुपम पर भी कोई शक नहीं करेगा. क्योंकि वह शहर से ही रात में आकर गाँव के बाहर ज्ञान्ती का इन्तजार करेगा.’
‘अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि, दिन निकलने के साथ ही गाँव के लोगों के बीच में वह चर्चा के केंद्र में रहेगी और लोग उसे बद्चलन, कुलटा, कलमुही, बाझ, रंडी इत्यादि उपाधियों से नवाजेंगे. उसे नहीं फर्क पड़ता कि कुछ लोग यह भी कहेंगे कि ज्ञान्ती मर गयी होगी. क्योंकि उसके भागने और मरने से उसके माँ- बाप पर अब कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’
स्टेशन पर पहुँचकर अनुपम ने मोबाइल में देखा छह बज चुके थे. उसे लगा, कहीं गाड़ी छुट न गयी हो... वह भागकर पूछ-ताछ कार्यालय में गया और ट्रेन की स्थिति पता की...ट्रेन आधे घंटे की देरी से चल रही थी. उसने चैन साँस ली.
वह छोटा सा स्टेशन था. इक्की-दुक्की गाड़ियाँ ही वहां रूकती थीं. कुछ यात्री इधर-उधर टहल रहे थे और कुछ विश्राम गृह में कम्बल ओढ़े ऊंघ रहे थे.
सबसे पहले उसने टिकट ख़रीदा और फिर दोनों हाथ-पैर धोये. वहीँ बाहर एक झोपड़ी नुमा चाय की दुकान थी वहां जाकर चाय पीने लगे. चलते समय तो उन्हें ठंडी का एहसास नहीं हुआ था, लेकिन अब दोनों के शरीर में कंपकपी सी लग रही थी. अनुपम ने दुकानदार से एक सिगरेट मांगकर जलायी तब जाकर उसे कुछ राहत मिली. ज्ञान्ती को चाय से ही काम चलाना पड़ा. उसे एक बारगी लगा कि, स्त्रियाँ सिगरेट क्यों नहीं पीतीं ?
थोड़ी ही देर में एनाउंसर की आवाज आयी – “यात्री गण कृपया ध्यान दें, मडुआडीह से चलकर लखनऊ तक जाने वाली कृषक एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या दो पर आ रही है.”
दोनों प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुँच गए. भीड़ बहुत कम थी, कुल पच्चीस-तीस लोग रहे होंगे जो पूरे प्लेटफार्म पर छितराये हुए थे. इन दोनों के बीच में एक लम्बा मौन पसरा हुआ था.
ज्ञान्ती दूर कहीं अवचेतन में टहल रही थी. उसे गुरसेन की याद आने लगी. ‘आखिर क्यों छोड़ रही है उसे ? क्या सिर्फ इस लिए कि वह सेक्स नहीं कर सकता ? क्या सिर्फ सेक्स ही पति-पत्नी के प्रेम का कारण है ? क्या सिर्फ इस कारण से ऐसे पवित्र रिश्ते को तोड़ा जाना चाहिए ? यदि ऐसा है तो बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनकी शादी नहीं हुई... उनका क्या ? और बहुत ऐसे भी लोग हैं जिनकी शादी तो हुई लेकिन बच्चे नहीं हुए. क्या वे सब लोग एक दूसरे को छोड़कर भाग जाते हैं ?.... नहीं-नहीं ज्ञान्ती ! सिर्फ यही कारण थोड़े है, बुद्धि भी तो नहीं है उसमें... तो इसका क्या मतलब है ? क्या वह इन्सान नहीं ? क्या उसे कोई अधिकार नहीं कि वह सामाजिक रिश्ते निभा सके...प्रेम कर सके ?’
अंतर्द्वंद से उसका सिर चकराने लगा. क्या उससे वह प्रेम करता है ? बिलकुल नहीं... उसके अन्दर तो संवेदना भी नहीं है. अगर वह संवेदनहीन है ! तो जब वह घर से निकल रही थी तो उसकी आँखों में आंसू क्यों थे ?
अंत में अन्दर ही अन्दर खुद से चिल्लाकर पूछी. “ज्ञान्ती, आखिर इसमें उसका क्या दोष है ?”... ज्ञान्ती ने भी चिल्लाकर कहा – “मैं नहीं जानती ! कि उसका क्या दोष है ? मैं सिर्फ इतना जानती हूँ कि इसमें मेरा क्या दोष है ?’
तभी धडधडाती हुयी ट्रेन आयी और रुक गयी. राजेश और पंडीजी प्लेटफार्म पर उतरे... राजेश ने अनुपम से हाथ मिलाया और अनुपम ने पंडीजी को नमस्कार किया. पैंट शर्ट पहने पंडीजी बालों को रंगकर आये थे. देखने में ठीक-ठाक थे. गेहुएं रंग पर काली मूछें फब रही थीं.
वे ज्ञान्ती को पसंद आये या नहीं उसने इस बारे में नहीं सोचा... बस, बुत बने खड़ी रही.
जब ट्रेन ने अपना भोंपू बजाया, तब जल्दी से राजेश, ज्ञान्ती का बैग लेकर अन्दर घुसा. पंडी जी भी चढ़ गए. अनुपम ने ज्ञान्ती को लगभग झकझोरते हुए कहा – जल्दी चढो.. ट्रेन चल दी है.’ लेकिन वह हिली तक नहीं, पत्थर की मूर्ति सी जड़ हो गयी... ट्रेन ने गति पकड़ ली. राजेश और पंडीजी चिल्लाते रह गए. ज्ञान्ती ने किसी का नहीं सुना. ट्रेन वहां से जा चुकी थी.
अनुपम अब भी उसे झकझोर रहा था... अचानक वह अनुपम के पैरों में गिर पड़ी और उसके मुह से आवाज आयी – मुझे बस माँ बना दो ... मैं अपने भोलूराम को छोड़कर नहीं जा सकती. उसकी चेतना लुप्त होती चली गयी. धीरे-धीरे लोगों की भीड़ जमा होने लगी थी.
संपर्क : महेश सिंह,
(शोधार्थी), एवं
संपादकपरिवर्तन :
साहित्य, संस्कृति एवं सिनेमा की वैचारिकी, त्रैमासिक ई-पत्रिका ( http://www.parivartanpatrika.in )हिन्दी विभाग, पांडिचेरी विश्वविद्यालय, पांडिचेरी-
605014, मोब- 7598643258, gguhindi@gmail.com
कमरे की हालत जर्जर थी. मिट्टी की दीवार, शहतीरों पर टिके खपरैल कभी भी गिर सकने की हालत में थे. भारी-भरकम आदम के जमाने का पंखा लटक रहा था. ‘जब भी चलता है चूं-चां किये घूमता ही नहीं , वह भी कितना ? अरे ! इसके घुमने से ज्यादा तो उसने उस कमरे में हाथ का पंखा घुमाया होगा’. गोबर और मिटटी की गंध को महसूस किया उसने. ‘कल ही तो लीपा था पुरे घर को.. लीपते समय उसने अकेले ही टीन की बनी आलमारी को दूसरी तरफ खिसकाया था. पलंग के नीचे वह नहीं लीप पायी होती, अगर उसका पति गुरसेन नहीं आया होता... सबलोग उसे गुरसेन क्यों बुलाते हैं..? जबकि उसका नाम तो उग्रसेन है... कितना हट्टा-कट्ठा और गबरू जवान है उसका पति. अकेले ही उस भारी-भरकम पलंग को उठाकर खड़ा कर दिया था’. गुरसेन का ध्यान आते ही ज्ञान्ति ने उसकी तरफ देखा- भैंसे जैसा सो रहा था उसी पलंग पर. लालटेन की रोशनी सीधे उसके मुह पर पड़ रही थी. चेहरे पर बैठे दो मच्छर खून साधना में लीन थे. नथुनों का फूलना-पचकना जारी था. मुह से लार निकलकर गालपर ढुलक गया था. ‘मुझे नफरत हो गयी है इस चेहरे से... मुझे नहीं रहना इसके साथ... आखिर मेरे भी तो कुछ अरमान हैं’ – वह खीझ भरी उधेड़बुन में थी, तभी गुरसेन ने करवट लिया. उसके आँखों के सामने ही उसका चेहरा दूसरी तरफ घूमा. कितना मासूम, सीधा-साधा, भोला-भाला. वह तो उसे भोलूराम ही कहकर बुलाती जब उसपर गुस्सा करती या प्यार जताती...प्यार..? प्यार तो कभी की ही नहीं अपने भोलूराम से, हाँ ! दया जरुर आती उसके भोलेपन और बैलेपन पर. लेकिन अब, नफरत करती है...नफरत ..सिर्फ नफरत ! इसलिए वह उसे हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ देना चाहती है.
मोबाइल की घंटी बजी...देखा, और रिसीव किया... अनुपम की आवाज आयी- “क्या कर रही हो, बारह बजने वाले हैं...बिजली कभी भी आ सकती है, और सुबह छह बजे से पहले ही स्टेशन पर पहुंचना है...जल्दी करो.” “अ..हाँ ! मैं बस निकल ही रही थी” - उसकी तन्द्रा टूटी.
“जल्दी करो मैं ट्यूबेल के पास हूँ”- फोन कट गया.
ज्ञान्ती को अभी तक थोड़ा भी डर नाम की चीज छू नहीं पायी थी. वह झट से अपना भरा हुआ बैग उठाई और दरवाजा खोलकर कमरे से बाहर निकल गयी. सहसा ! ठिठकी, पीछे मुड़कर देखा, गुरसेन अभी भी सो रहा था... ‘आज दिनभर खेतों में काम किया है, थक गया होगा. तभी तो वह ढंग से खाना भी नहीं खाया. कहाँ आठ-दस रोटी खाता था केवल पांच रोटी में ही बम बोल दिया. आज खीर भी बनाई थी, सोचा आखिरी बार उसे उसकी पसंद की चीज खिला दूँ...फिर भी नहीं खाया. मत खाए, मुझे क्या ? मैं तो जा रही हूँ... जा रही हूँ मेरे प्यारे भोलूराम’ ! – वह चिल्लाना चाहती थी. इतना तेज, कि उसकी आवाज गुरसेन की कानों तक पहुँच जाये और वह जागकर देखे कि.. ज्ञान्ती जा रही है.
इसी उधेड़बुन में वह कब गुरसेन के पास आ गयी पता ही न चला. अपने आँचल से खून-साधना में लीन मच्छरों को भगाया और, झुककर गौर से उसके चेहरे को देखने लगी. उसने देखा कि गुरसेन की आखें गीली हैं. उसे लगा कि वह रो रहा है इसलिए उसके सिर पर हाथ फेरते हुए टोह ली. जब उसे पूरा विस्वास हो गया कि वह गहरी नींद में है तब वह सोचने लगी कि – ‘इसमें गुरसेन का क्या दोष है ? उसने तो कभी कुछ कहा भी नहीं उससे, वह तो बस अपने काम से काम रखता है. बस ! यही तो दोष है उसका...नहीं-नहीं ...अब मैं इसके पलड़े नहीं पड़ने वाली...जा रही हूँ मैं.. हाँ भोलूराम ! सुन रहे हो न.. मैं जा रही हूँ हमेशा के लिए तुम्हे छोड़कर’ ! आँखों से आसुंओं की एक धारा सी फूट पड़ी. वह उसके होठों को चूम लेना चाही, लेकिन लार अब भी उसके गाल पर चिपके हुए थे इसलिए माथे पर चूमा और बैग उठाकर आँगन पार करके, घर के पिछले दरवाजे से बाहर निकल गयी. घर की तरफ मुड़कर भी नहीं देखा. बस कानों में बूढी सास की खर्राटे की आवाज सुनाई पड़ी.
गाँव में चारो तरफ अँधेरा फैला हुआ था. चार दिन बाद दिवाली थी इसलिए चाँद भी नहीं निकला था. बिजली अभी भी नहीं आई थी, अबतक तो आ जाती थी. यह अलग बात है कि जल्दी चली भी जाती थी. हालाँकि गाँव वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि- बिजली कब आती है और कब जाती है. सदियों से अँधेरे में रहने की आदत जो है. खैर, जब वह घर से निकली तो पहले-पहल कुछ भी न दिखा. लालटेन की चमक से आखें मिचमिचाई हुई थीं. उपर से आखों में आंसू का गीलापन. लेकिन कुछ ही देर में उसे अंधेरे में भी गाँव की गली के कंकड़- पत्थर और घास नजर आने लगे.
वह जल्द से जल्द गाँव से बाहर निकल जाना चाहती थी. इसलिए बैग को सिर पर रख लिया और साड़ी को थोड़ा उपर उठाकर कमर में खोंस ली. वह लम्बे-लम्बे डग भरकर चल रही थी तभी दो-तीन कुत्ते भौंकते हुए उसके पीछे पड़ गए. डर के मारे पूरा शरीर कांप गया. इतने में मंगरू काका ने खाट पर सोते-सोते ही अपनी लाठी जमीन पर दो-तीन बार पटका और दुर..दुर..दुर की आवाज लगाई. कुत्ते कूं..कूं करते हुए दूसरी गली में फिर से भौंकने लगे. वह अब भी वहीँ दम साधे खड़ी रही. घुटने कांप रहे थे. मोबाइल को उसने ब्लौंज में खोंस रखा था बैब्रेसन मोड़ में करके. इसी बीच अनुपम का एक और कॉल आया. मोबाइल ब्लौंज में ही कांप उठा. ब्लौंज में घनघनाते मोबाइल से, एक बारगी तो डर के मारे पूरा जिस्म थरथरा गया. माथे पर पसीने की बूदें निकल आयीं. पल्लू से मुह पोछी और डउका बाबा को गोहराया, तब जान में जान आई. गाँव वालों की मान्यता है कि डउका बाबा का नाम लेते ही सारी बाधाएं दूर हो जाती हैं. भूत- प्रेत तो आस-पास भी नहीं भटकते.
जब वह ट्यूबेल के पास पहुंची, अनुपम पहले से ही वहां उसका इंतजार कर रहा था.“कितनी देर लगा दी”
कुछ न बोली, बस हांफे जा रही थी. वह चाहती थी कि थोड़ा सुसता ले, लेकिन अनुपम ने कहा- “यह बैठने और सुस्ताने का समय नहीं है, हमें स्टेशन पर जल्दी से पहुंचना होगा, देखो ! एक बजने वाले हैं”.
“कितनी दूर होगा स्टेशन यहाँ से” ? -ज्ञान्ती ने पूछा.
“यही कोई तीन-चार किलोमीटर ! लेकिन हमें खेत-खेत होकर जाना होगा, इसलिए समय थोडा ज्यादा लगेगा”.अनुपम उसका बैग उठाया और सिर पर रखकर आगे-आगे चलने लगा. ज्ञान्ती भी उसके पीछे-पीछे भागने लगी.
भयानक अँधेरी काली रात, उपर से हल्के कोहरे की धुंध, खेतों में धान की कटाई हो रही थी, कुछ खेत कट भी गए थे. शीत के कारण उनके पैर गीले हो गये. चप्पलों पर मिट्टी चिपकने से चला नहीं जा रहा था. उसने, अनुपम और अपना चप्पल हाथ में ले लिया और साड़ी को घुटने तक मोड़कर कमर में खोंस ली. ठंढी हवा कमर तक पहुँच रही थी. वहां तक, जहाँ वह हमेशा गर्मी का एहसास करते आयी थी. अब वहां भी उसे कठुआने जैसा लग रहा था.
‘उस बरस भी इसी प्रकार का मौसम था, दिवाली भी और गोधन (गोबर्धन) पूजा भी. कितने धूम-धाम से मनायी थी वह अपने सहेलियों के संग. दिवाली से ज्यादा, उसे गोधन पूजा में मजा आता... जब गाँव की सारी लड़कियां गोधन बाबा का अंडकोष पहरुआ से कूटती थीं. फिर एक महीने तक पीड़ियाँ की धूम...नाचना, गाना-बजाना, हंसी-ठिठोली और बहुत कुछ. उसे याद आया कि अधिकतर लड़कियों का कुंआरापन इसी पीड़िया में टूट जाता है. उसका भी तो उसी में भंग हुआ था, जब वह सोलह वर्ष की थी. वह माँ से बताकर निकली कि पीड़िया में जा रही है, लेकिन वह वहां नहीं गयी. उसकी सहेली रागिनी भी उसके साथ थी. रागिनी ने ही मनोज से उसका मेल कराया था. उस रात वह पीड़िया में न जाकर मनोज के पास गयी थी. तालाब के किनारे अरहर के खेत में. कितनी बड़ी गलती की थी वह माँ से झूठ बोलकर. जबकि माँ ने हमेशा उसको समझाया था कि- कुछ ऐसा-वैसा न कर-करा लेना जिससे तेरी बाबू की नाक कट जाये. नाक ही तो कटा रही थी वह उस दिन. नहीं-नहीं इससे नाक थोड़ी कटती है. ये तो सब करती हैं ...पिंकी, माया, सोनी, ममता, कौन बचा है इससे ? सबके बारे में जानती हूँ...अरे, जमीदार की लड़की तो अपने घर तक बुलाती है सलीम को...और सलमा भी तो है मुल्ला जी की, दिनभर बुर्के में रहती है...क्या उसने उसको नहीं देखा है, अरविन्द से मिलते हुए ? इसकी तो वह चश्मदीद गवाह है. कोई नाक-ओक नहीं कटती... कटती भी है तो कटे...रागिनी भी तो उसदिन विनोद के साथ गयी थी. वैसे भी ! उसका कौमार्य तो कभी था ही नहीं’. उसने बड़ी औरतों से सुन रखा था कि, ‘जिसका खून नहीं निकलता समझना चाहिए कि वह कुंवारी नहीं है’. उसका भी तो नहीं निकला था उस दिन. ऐसे में जब वह जन्म से ही कुंवारी नहीं फिर उसका क्या कुंवारापन भंग होगा.
“जल्दी-जल्दी चलो ! अभी काफी दूर चलना है”
अनुपम की आवाज उसके कानों से टकरायी तब उसकी चेतना वापस लौटी. खुद से शरमा गयी वह. ‘धत् ! क्या-क्या, उल्टा-सीधा सोच रही हूँ’ ?
अब वह तेज-तेज चलने लगी. उसने दायें, बायें और पीछे मुड़कर देखा. दूर-दूर तक वियावान अँधेरे के सिवा कुछ भी न था. वातावरण कितना शांत था. उसे लगा कि, ‘पुरे भूमण्डल में अकेली परी है वह.. जहाँ चाहे, वहां पंख पसारकर विचरण कर सकती है’. आजादी की पराकाष्ठा का अनुभव हुआ उसे. लम्बे-लम्बे डग भरने के कारण वह अनुपम के पास तक पहुँच गयी. दोनों भागे जा रहे थे... अपने गंतव्य की तरफ.
उसे याद आया कि गोधन पूजा के बाद ही तो उसकी शादी हुयी थी उग्रसेन से. ‘कितना मर्दाना लगा था वह, जब उसके घर बारात लेकर आया था. गठीले बदन वाला छैल-छबीला... और तो और, दहेज भी नहीं लिया था उसके घर वालों ने’. ऐसे लड़के के लिए दहेज न लेने पर माँ ने बाबू से पूछा था. तब बाबू ने बताया कि- ‘उसकी सास की बस एक ही इच्छा है. लड़का थोड़ा सीधा-साधा है लेकिन खेतों में खूब काम करता है. वह भी बूढी हो चली है और पिता भी नहीं है ऐसे में तो बस, उसकी सेवा और घर सम्हालने के लिए घर में बहू आ जाये इतना ही काफी है. दान-दहेज लेकर क्या करेगी’. ‘और तुम तो जानती ही हो कि अपनी हालत भी कुछ ठीक नहीं है. इसके बाद अभी तीन लड़कियां और हैं व्याहने को, अब ऐसा ही मौका देखकर एक-एक को किनारे नहीं लगायेंगे तो कैसे काम चलेगा’?
सही ही तो कह रहे बाबू, ‘गरीब घर की लड़कियों को बड़े सपने नहीं देखने चाहिए. उन्हें कोई हक़ नहीं कि उनके सपनों का राजकुमार उन्हें मिले’. वैसे भी क्या कमी है मेरे उग्रसेन में ?
वह भागी चली जा रही थी अनुपम के पीछे-पीछे एक ऐसी दुनियां की उम्मीद में, जहाँ उसे वह सब मिलेगा जो वह चाहती है. ‘यह उम्मीद ही तो है, जिससे आदमी जिन्दा रहता है. उम्मीद न हो, तो आदमी कब का मर गया होता. वैसे अब भी कहाँ जिन्दा है आदमी ? यहाँ तो बस मुर्दे रहते हैं मुर्दे. सच ही तो है, हैवानियत को देखकर भी चुप खड़े रहने वाले, आखिर मुर्दे नहीं तो क्या हैं’ ? उसे याद आया कि कैसे अर्चना भाभी को पांड़े, पंड़ाईन और उनके लड़के ने मिलकर कमरे में जिन्दा जला डाला था. ‘क्या गलती थी उनकी ? यही न कि वह एक गरीब घर की बेटी थीं और नौकरी-पेसा वाले लड़के के लिए उनके माँ- बाप ने मुहमाँगा दहेज नहीं दिया था. खैर ! वे तो हैवान निकले, पर इन्सान भी कहाँ थे वहां ? क्या वे मुर्दे नहीं थे ? जब पुलिस ने पूछ-ताछ की. तब किसी का मुह नहीं खुला, जबकि सब जानते थे. कोई भी तो आगे नहीं आया पुरे गाँव से. सब के सब मुर्दे थे. क्या मेरे बाबू भी ? हाँ शायद वह भी... लेकिन उनका क्या दोष ? वे भी तो गरीब ही थे. उन्होंने तो एक ही लाईन यह बात कह दी थी कि – हमें बड़े लोगों के बीच में नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि हम जाति और पैसे दोनों से उनसे काफी नीचे हैं’.
“हमें यहाँ थोड़ी देर आराम कर लेना चाहिए” – अनुपम हांफते हुए बोला, बैग ढोते-ढोते उसकी हालत खराब हो गयी थी.
“अभी कितना दूर और चलना पड़ेगा” ? -ज्ञान्ती ने पूछा.
“शायद, आधी दूरी तय कर लिया है हमने.. आओ यहाँ बैठो” – उसने ज्ञान्ती का हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया.
वहां एक कुएं का चबूतरा था वहीँ दोनों आराम करने लगे.
“तुम्हे डर तो नहीं लग रहा न” ?
“नहीं !.. हाँ .. थोड़ा-थोड़ा...”
“डरो नहीं, जो होगा अच्छा होगा” – उसने ज्ञान्ती के कंधे पर हाथ रखकर अपनी तरफ खींच लिया.
वह भी उसके बाँहों में सिमटती चली गयी – “क्या हम लोग सहीं कर रहे हैं” ?
“देखो ! सहीं-गलत कुछ भी नहीं होता, अपने-अपने नजरिये में सब सहीं होता है. और सबको सुख-चैन से रहने का अधिकार है इस धरती पर, जिसके लिए आदमी कठोर निर्णय लेता ही है”.
उसने अनुपम की आँखों में झाँका- कितना आत्मविश्वास झलकता है उसमे, उसने मन ही मन कहा- ‘हमने अर्पित कर दिया है तुम्हे अपने आप को, अब हमें सुख मिले या दुःख.. कोई फर्क नहीं पड़ता’.
अनुपम ने मोबाइल में समय देखा. “तीन बजने वाले हैं... चलो चलते हैं”.
बैग उठाकर सिर पर रखा और चलने लगा. ज्ञान्ती ने भी चप्पलों को हाथ में लिया और चलने लगी अनुपम के पीछे-पीछे.दोनों के पैर, घुटने तक गीली मिट्टी के छीटों से भरे हुए थे. चलते तो ‘छप-चपर-छप’ की आवाज आती. अँधेरा अभी भी वैसा ही था, लेकिन उसके मौन में खलबलाहट मचने लगी थी. दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने और मुर्गे की बाग़ रह-रहकर सुनाई दे रही थी.
कितनी खुश थी वह, जब ससुराल में उसने अपना पहला कदम रखा. कितनी लड़कियां आयी थीं उसे देखने के लिए, कुछ बूढी और अधेड़ औरते भी. सबने उसकी तारीफ की थी. ‘हल्दी लगाकर मालिश होने से उसके चेहरे पर क्या चमक उभरी थी. हलके सांवले रंग में मिला हल्दी का रंग और उपर से आँखों में लगा काजल’. सच में, उसे देखकर अन्य लड़कियों में ईर्ष्या का भाव तो जरुर उमड़ा होगा. तभी तो बगल से गुजरते हुए गुरसेन को देखकर नउनिया ने कहा था – “गुरसेन बाबू जरुर छुप-छुपकर शिव बाबा को भांग-धतुरा चढाते होंगे, तभी तो ऐसी बहुरिया आयी है घर में. अरे ! का गुरसेन बाबू सही कह रही हूँ न” ?
दिन भर मुह दिखाई का रश्म अदा करते-करते थक गयी थी वह. खाना तो खाया ही नहीं गया उससे. माँ- बाबू की भी बड़ी याद आ रही थी. यह भी सोचकर डर लग रहा था कि- ‘अभी गुरसेन आएगा और जाने क्या-क्या करेगा’? एक तरफ सुहागरात का उमंग भी था तो दूसरी तरफ एक अंजाना डर भी गुलाटियां ले रहा था. लेकिन उसे कब नींद आ गयी पता ही न चला. उसे अब भी याद है कि गुरसेन उस रात कमरे में नहीं आया था.
दूसरी रात, किसी ने गुरसेन को कमरे में जबरदस्ती घुसाकर बाहर से दरवाजा बंद कर दिया. पहले तो वह इधर-उधर टहलते रहा फिर चटाई लेकर जमीन पर ही लेट गया. उसके बहुत कहने पर वह आया भी तो पलंग पर एक तरफ मुह करके सो गया.
इस प्रकार यही सिलशिला रोज का चलने लगा. वह कमरे में आता और एक किनारे मुह करके सो जाता. सुबह उठकर कब चला जाता, पता ही न चलता. फिर तो दिन भर खेतों में हाड़तोड़ मेहनत, बैलों को चारा-भूसा, और गोबर-गुथार, लगभग घर के बाहर का सभी काम उसे ही करना पड़ता. किसी से कोई बात-विचार नहीं, अगर कोई उससे बात करने का प्रयास भी करता, तो हाँ- हूँ करके निकल लेता. वह इतना सीधा और मंदबुद्धि था कि गाँव का कोई भी व्यक्ति उसे बहला-फुसलाकर अपना कोई भी काम करवा लेता. और जिस दिन, उसके लिए कोई काम नहीं होता, उस दिन वह बैलों को लेकर चराने निकल जाता.
धीरे-धीरे छह महीने गुजर गए. इस बीच में उसने कई बार कई तरह से प्रयास किया. यहाँ तक कि वह गुरसेन और अपने कपड़े स्वयं खोलकर उसके साथ सोई. पर कोई असर नहीं. उसके मन में यह प्रश्न स्वतः ही उठने लगा कि – “वह नपुंसक तो नहीं है”?
कुछ ही दिनों में, शक जब यकीन में बदल गया तब उसने निर्णय लिया कि- जब वह अपने मायके जाएगी तो फिर-फिर यहाँ नहीं आने वाली.
उसकी बूढी सास उसे बेटी की तरह मानती थी. कारण कि, उसके आने के बाद पुरे घर की तस्वीर ही बदल गयी. घर का सारा काम उसने अकेले ही सम्हाल लिया था. उसकी सास की अब साँस फूलनी भी बंद हो गयी थी. गुरसेन और उसके बीच में चाहें जो चल रह हो, पर ! उसने भी बूढी सास की खूब सेवा की. कहाँ मरने के कगार पर थी, फुदक-फुदक कर चलने लगी. घर में टोले- मुहल्ले की लडकियों का आना-जाना होने लगा था. कुछ लड़के भी आते, जो रिश्ते में देवर लगते थे. उनके बीच में खूब हंसी-ठिठोली होती. इस प्रकार, उसका दिन तो खूब अच्छे से निकल जाता लेकिन रात मानों उसकी बैरन बनी बैठी हो. हर रात उसके लिए एक युग से काम नहीं होता.इन्ही लड़के-लड़कियों में से एक अनुपम भी था, गुरसेन के चाचा का लड़का, उसकी दो बहने थीं जो उससे बड़ी थीं. एक की तो शादी भी हो गयी थी, बस गवना होना बाकी था. वे दोनों भीं दिन भर ज्ञान्ती के ही साथ ही रहतीं. सिलाई, बुनाई हंसी-मजाक और गाँव भर की उलटी सीधी बाते. अनुपम भी उन्ही में घुला-मिला रहता, लेकिन वह स्कूल भी जाता था. उन दिनों वह बारहवीं की परीक्षा पास किया था सेकेण्ड डिविजन में. ‘इसके बाद वह बी. ए. करने शहर जायेगा और फिर कलट्टरी का परीक्षा देगा. हर समय वह यही बातें क्या करता’.
अंधेरे की तीव्रता घटने लगी थी. थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव दिखा, जहाँ से कोहरे को चीरती हुई बिजली के वल्बों की रोशनी तारों जैसे टिमटिमाते हुए आ रही थी. अनुपम ने बताया कि- “स्टेशन गाँव के उस पार है, वहां जाने के लिए गाँव के बीचो-बीच से एक रास्ता गुजरा है. लेकिन हम उधर से नहीं जायेंगे. यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर रेलवे लाईन है. हमें वहां पहुंचकर पटरियों पर चलकर ही स्टेशन जाना होगा”.
“अब मुझसे बिलकुल भी चला नहीं जाता”- ज्ञान्ती ने कहा.
“बस, थोड़ी ही दूर तो है”.
“मैं पूरी तरह से थक गयी हूँ”.
“थक तो मैं भी गया हूँ”.
“थोड़ी देर रुकते हैं यहाँ पर” – ज्ञान्ती ने अपनी इच्छा जताई.
“पांच बजने वाले हैं ज्ञान्ती.. हम नहीं रुक सकते.. लोग-बाग इस समय घर से बाहर निकलने लगते हैं”.
ज्ञान्ती कुछ न बोली, खुद ही आगे आगे चलने लगी. आराम न करने देने से उसे अनुपम पर बहुत गुस्सा आ रहा था. जी में आया कि खींच के दो-तीन तमाचे जड़ दे उसके गाल पर.
गाल पर तमाचा जड़ने से उसे याद आया कि- ‘उसदिन वह नहा-धोकर अपने बालों में कंघी कर रही थी, एक छोटे से आईने के सामने खड़े होकर और कमरे का दरवाजा खुला ही छोड़ रखी थी. अचानक उसे लगा कि गुरुसेन कमरे में दबे पाँव आकर उसके पीछे खड़ा हो गया है. उसके पास होने का एहसास होते ही, अपनी आँखें बंद करके सोंचने लगी, कास ! वह पीछे से ही अपनी मज़बूत बाँहों में कसकर उसे पकड़ता और अपनी गर्म साँसें उसके गले और कानो पर छोड़ता. तभी उसने महसूस किया कि गुरुसेन की बाहें दोनों बगल से उसे जकड़ रही हैं. और हथेलियाँ गोलाइयों का नाप ले रहीं हैं. बाएं कान और गले पर गर्म साँसें पसरने लगी तो वह थरथरा उठी. यही तो चाहती थी वह. आज पहली बार वह अपने आप को पति के बाहों में पाकर समर्पित होने लगी. वह इठलाना, इतराना और शरमाना भी चाही. उसने सोंचा क्यों न दोनों एक दूसरे को तंग करें, छेड़ें, और नोक-झोक हो. इसलिए वह बोलती हुई उससे दूर हटी. “क्या कर रहे हो? छोड़ो मुझे”. बाहों को छुड़ाकर जब वह घूमी तो उसके सामने गुरसेन नहीं अनुपम था. पूरे शरीर में आग लग गयी. खुले बालों के बीच आँखों में खून तैरने लगा. उर्वशी से काली बन गयी वह. तनिक भी देर न लगी उसका हाँथ अनुपम के गाल पर जा चिपका.-चटाक...! “हरामी, कमीना, दोगला, लतमरुआ....शरम नहीं आती तुम्हें” ?.. एक ही सांस में पचासों गालियाँ बक गयी थी वह. “अभी बुलाती हूँ चाची को”. अनुपम उसका यह रूप पहले कभी नही देखा था. डर के मारे कांपने लगा, किये गए अपराध की क्षमा याचना लेकर. अगली सुबह उसे पता चला कि अनुपम बी. ए. की पढाई के लिए शहर चला गया है’.
अब वे रेल की पटरियों के बीच चल रहे थे. उजाला अपना पांव पसारने की तैयारी करने लगा था. अँधेरे की शांति में अब चिड़ियों की चहचाहट भी घुलने लगी थी. मंदिरों के भोंपू गाने लगे थे.
“जो यह पढ़े हनुमान चलीसा, होहिं सिद्धि साखी गौरीसा
तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ ह्रदय महाडेरा”
दूसरी तरफ से एक और आवाज आयी – “अल्ला आ आ...हो..अकबर....!”
उसे अपनी माँ की याद आने लगी. उसे याद आया कि ‘अनुपम के जाने के बाद उसके बापू उसे अपने साथ गाँव लिवा गए थे, माँ के पास. कई महीनों तक वहीं रही वह. सारा सुख-दुःख बताया उसने माँ से, पर यह न बता पायी कि उसका पति नपुंसक है. जब कुछ ही दिन बाद उसे पता चला कि उसकी सास ने उसे वापस बुलाने के लिए संदेशा भेजा है तो वह फफककर वह रो पड़ी थी माँ की गोद में सिर रखकर’.
“मां मुझे अब नहीं जाना वहां, कहीं और ब्याह दो मुझे.”
“ऐसा नहीं कहते बेटा. जोड़ी तो भगवान् बनाते हैं. हम कैसे ब्याह दें कहीं और तुम्हे. अब तो वही तुम्हारा घर है और गुरसेन ही परमेश्वर.”
“तुम नहीं समझती माँ...मेरा गुज़ारा नहीं हो सकता वहां.”
“गुजरा हो या न हो, गुजारा करना पड़ता है स्त्री को. उसकी नियति ही ऐसी है.”
“लेकिन मेरी नियति ऐसी नहीं है.”
“तो क्या करोगी, तालाब - पोखरा देखोगी?”
“नहीं....भाग जाउंगी.”
“कहाँ ?”
“कहीं भी.”
“जब तुमने ठान ही लिया है तो हम क्या कर सकते हैं. जा....भाग जा, लेकिन हम कहीं और नहीं ब्याह सकते तुझे. इतनी औकात नहीं है हमारी. तीन-तीन जवान बेटियां अभी भी पड़ी हैं ब्याहने को.....हे भगवान् ! किस जनम का बदला ले रहे हो. इसे तनिक भी फिकर नहीं है कि इसके इस कृत्य के बाद इसकी बहनों का कौन दामन थामेगा.”
(मां रोते हुए अपने आँचल से आंसूं पोछने लगी. उसे भी रोना आ गया था. और न चाहते हुए भी उसे ससुराल आना पड़ा था)
रेल के पटरियों पर वे दोनों इस प्रकार चल रहे थे गोया पटरियों को गिन रहे हों . एक, दो, तीन, चार, हजार और लाख, ज्ञान्ती को लगा जैसे वह रेल की पटरियां नहीं बल्कि जिन्दगी की सीढियाँ गिन रही है.
धीरे-धीरे चार साल गुजर गए. वह अब गुरसेन के साथ खेतों में जाने लगी थी. दोनों जी-जान लगाकर खेत में काम करते. उसे बस कहने भर कि देरी होती गुरसेन फटाफट उस काम को निपटा देता. अच्छी फसल होने से घर में सम्पन्नता का प्रवेश होने लगा था. भौतिक सुख-सुविधा में बढ़ोत्तरी होने लगी. उसने दिन से प्यार करना सीख लिया था, लेकिन डायन रात से अब भी उसे डर लगता. वह चिड़चिड़ी होने लगी थी. गाँव में लोग- बाग चर्चा करने लगे थे कि- ‘गुरसेनवां की मेहरी बाझ है.’ उसकी, सास से अब नहीं पटती थी. उन दोनों के बीच में कहा-सुनी और गाली-गलौज भी होने लगा था. उसी में मौका पाकर उसकी सास भी उसे बांझिन कह देती.
कोटेदार (सरकारी राशन दुकान वाला) का लड़का जब भी उसे अकेले में देखता, तो पास आकर कहता- “भौजी ! हम तो कहते हैं जांघ बदल के देखो... सब दुःख दूर हो जायेगा.”
“कुत्ता.. हरामी.. पिल्ला जा के अपनी बहिनियाँ से कहना कि जांघ बदलवा ले” – गरियाती हुई टूट पड़ती उसपर... लेकिन बत्तीसी दिखाते हुए भाग जाता वह.
इस बीच उसकी तीनो बहनों का ब्याह हो गया. बिबाह के मौके पर वह मायके भी गयी, लेकिन माँ से कोई शिकायत नहीं की. इधर अनुपम ने भी बी ए पास कर लिया और अब उसी कालेज से एम ए कर रहा है. इतने लम्बे अन्तराल में उसने कभी भी अनुपम से बात नहीं की. और ना ही अनुपम कभी साहस किया उससे बात करने का. यहाँ तक कि अनुपम की बड़ी बहन के गवना के अवसर पर भी नहीं. दोनों एक दूसरे को देखकर अपना रास्ता बदल लेते.अभी तक उस घटना (जो उन दोनों के बीच में घटी थी) की किसी को भी कानों-कान तक खबर नहीं हुई थी.
उनदिनों मोबाइल का प्रचालन धीरे-धीरे बढ़ रहा था. अपने आस-पास में सबसे पहले उसने अनुपम के हाथ में ही मोबाइल और उससे बात करते हुए देखा था. मोबाइल के प्रति जब उसकी इच्छा तीव्र हुई तो चाचाजी (अनुपम के बाबूजी) को पैसे देकर बाजार से नोकिया का मोबाइल मंगवाया. मोबाइल पर बात कैसे करते हैं ? उसने बहुत बाद में जाना, लेकिन उसमे एक सांप वाला खेल था. उसे जब भी काम से फुर्सत मिलता खेलने लगती. गेम साधना से डायन रात का प्रकोप कुछ काम होने लगा.
स्टेशन की बत्तियां अब दिखने लगी थीं. थकने और अब तो मंजिल आ गयी की मानसिकता से रिलैक्स मोड में होकर वे पटरियों पर टहलते हुए जा रहे थे. कुछ औरतें और कुछ मर्द लाईन के दोनों तरफ अपने-अपने इलाके में लोटा लिए हुए बैठे थे. उन्हें देखकर औरतें तो उठ जातीं लेकिन मर्द बड़े बेसरम होते हैं.
ज्ञान्ती अभी भी अपने सोच लोक में ही विचरण कर रही थी. उसे याद आया कि- ‘उस रात उसे नीद नहीं आ रही थी जब अनुपम की बहन के माध्यम से अनुपम का नंबर मिला था. अजीब तरह की बेचैनी थी. सांप वाला खेल भी उसे अच्छा न लगा. उसने कई बार अनुपम का नंबर डायल किया और काटा. गुरसेन उस रोज भी उसी तरह सोया था. उसे कुछ भी फिकर न थी कि, वह मातृत्व सुख के लिए तड़प रही है, कइ बार करवटें बदली वह. फिर भी नींद नहीं आयी. अंगड़ाई लेती तो हड्डियों के जोड़ो और मांसपेशियों में सुखद दरद उभरता. मन में हजारों-हजार ख्याल हिलोरे ले-लेकर उठते और आपस में गड्ड-मड्ड हो जाते.
अंततः उसने अनुपम का नंबर मिलाया. उधर से हलो...हलो की कई बार आवाज आयी. वह चुपचाप सुन रही थी... अनुपम ही था.‘वह उससे क्यों बात कर रही है ? उसे इसका जवाब तो नहीं मिला.. लेकिन मन में एक प्रश्न और उठा...क्यों न बात करे ? वह उससे बात न करे तो किससे करे ? कोटेदार के लड़के मोहना से ?... हरामी... कुत्ता... दईत्तर जैसा तो दीखता है... सांड कहीं का.’
उसका द्वन्द चल ही रहा था कि उधर से फोन आया. रिसीव की तो आवाज आयी...
“हलो !.. कौन ?.. हलो !”
“हलो..! हाँ ! मैं ज्ञान्ती.”
एक पल के लिए सन्नाटा छा गया.
“आवाज नहीं आ रही क्या..? मैं ज्ञान्ती बोल रही हूँ.”
“हाँ भौजी,.. मैं सुन रहा हूँ ... नमस्ते !”“हाँ ...हाँ ..! कैसे हो ?”
“मैं ठीक हूँ ...लेकिन आज भी शर्मिंदा हूँ... मुझे माफ़ कर देना भौजी.”
“अरे ! नहीं .. नहीं, ऐसी बात नहीं करते... मैं तो कब की भूल चुकी हूँ ओ सब.”
उस दिन रात वाली डायन मर गयी. अनुपम उसे रोज फोन करने लगा. जिस रात उसका फोन नहीं आता वह खुद ही उसका नंबर डायल कर देती. खुद से ज्यादा उसपर भरोसा करने लगी थी वह. इसलिए उससे वह सारी बात शेयर करने लगी जो वह अबतक किसी से नहीं कर पायी थी.
उसे याद आया कि उसने एक बार अनुपम से कहा था कि – “शादी करोगे मुझसे ?” इसपर वह तरह-तरह की दलीलें देकर अपनी मजबूरियां बताने लगा था. वह उसे सांसत में नहीं डालना चाहती थी इसलिए उसकी यह उम्मीद धरी की धरी रह गयी. लेकिन उसने कई बार झुंझलाहट में यह कह दिया था कि- “वह यहाँ नहीं रहेगी... भाग जाएगी ..या मर जाएगी.”
एक दिन अनुपम ने उससे बताया कि ‘उसके कालेज में उसका एक मित्र है राजेश, जिसका गाँव दूसरे जिले में है यहाँ से काफी दूर, जिससे वह सारी बातें बताता है. बातो ही बातों में राजेश ने अनुपम से बताया था कि – उसके गाँव में एक पंडीजी हैं. जिनकी पत्नी का देहांत शादी के कुछ ही दिनों बाद हो गया था. वे पत्नी से इतना प्रेम करते थे कि शादी न करने का निर्णय लिया. लेकिन ढलती उम्र में अकेलापन बड़ा कष्टदायी होता है. अभी उनकी उम्र भी ज्यादा नहीं है. यही कोई चालीस के आस-पास के होंगे. जमीन जायदाद भी बहुत है. लेकिन कोई नहीं है उसे भोगने वाला... अब वे चाहते हैं कि शादी कर लें. उन्हें कैसी भी लड़की मिल जाए तो स्वीकार है यहाँ तक कि अंतर्जातीय विवाह से भी उन्हें परहेज नहीं है.’
अनुपम ने उसे बताया कि ‘राजेश ने उनसे बात कर ली है. बस तुम हाँ कर दो तो बात बन जाएगी.’ वह अनुपम की सारी बातें चुप-चाप सुनती रही.. उसे अच्छी तरह याद है कि इसपर उसने कुछ नहीं बोला था.
कई दिनों तक उसके मन में अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा. एक तरफ विचारों से विचारों का युद्ध, परम्परा से विद्रोह, माँ-बाप की नाक, गाँव-जवार, जाति- बिरादरी, टोला-मुहल्ला और उसका भोलूराम. एक-एक करके सब उसके मानस पटल पर आदर्श और यथार्थ के रूप में आते-जाते रहे. वहीँ दूसरी तरफ उसकी अपनी अस्मिता, स्वतंत्रता और स्वछंदता, उसे अतल गहराई से बाहर निकालने के लिए उसका कान भरते रहे. फिर भी वह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि क्या करे ?
आखिरकार कई दिनों के जद्दोजहद के बाद उसने अनुपम को फोन करके बताया कि- ‘वह तैयार है.’
इसके बाद ही यह योजना बनी कि – ‘पास के स्टेशन तक पंडीजी और राजेश आ जायेंगे सुबह की छह बजे वाली गाड़ी से. और इधर अनुपम ज्ञान्ती को लेकर रातों-रात स्टेशन तक पहुँच जायेगा. कहीं से भी किसी को खबर नहीं होगी कि- ज्ञान्ती कहाँ गयी ? किसने भगाया ज्ञान्ती को ? अनुपम पर भी कोई शक नहीं करेगा. क्योंकि वह शहर से ही रात में आकर गाँव के बाहर ज्ञान्ती का इन्तजार करेगा.’
‘अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि, दिन निकलने के साथ ही गाँव के लोगों के बीच में वह चर्चा के केंद्र में रहेगी और लोग उसे बद्चलन, कुलटा, कलमुही, बाझ, रंडी इत्यादि उपाधियों से नवाजेंगे. उसे नहीं फर्क पड़ता कि कुछ लोग यह भी कहेंगे कि ज्ञान्ती मर गयी होगी. क्योंकि उसके भागने और मरने से उसके माँ- बाप पर अब कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’
स्टेशन पर पहुँचकर अनुपम ने मोबाइल में देखा छह बज चुके थे. उसे लगा, कहीं गाड़ी छुट न गयी हो... वह भागकर पूछ-ताछ कार्यालय में गया और ट्रेन की स्थिति पता की...ट्रेन आधे घंटे की देरी से चल रही थी. उसने चैन साँस ली.
वह छोटा सा स्टेशन था. इक्की-दुक्की गाड़ियाँ ही वहां रूकती थीं. कुछ यात्री इधर-उधर टहल रहे थे और कुछ विश्राम गृह में कम्बल ओढ़े ऊंघ रहे थे.
सबसे पहले उसने टिकट ख़रीदा और फिर दोनों हाथ-पैर धोये. वहीँ बाहर एक झोपड़ी नुमा चाय की दुकान थी वहां जाकर चाय पीने लगे. चलते समय तो उन्हें ठंडी का एहसास नहीं हुआ था, लेकिन अब दोनों के शरीर में कंपकपी सी लग रही थी. अनुपम ने दुकानदार से एक सिगरेट मांगकर जलायी तब जाकर उसे कुछ राहत मिली. ज्ञान्ती को चाय से ही काम चलाना पड़ा. उसे एक बारगी लगा कि, स्त्रियाँ सिगरेट क्यों नहीं पीतीं ?
थोड़ी ही देर में एनाउंसर की आवाज आयी – “यात्री गण कृपया ध्यान दें, मडुआडीह से चलकर लखनऊ तक जाने वाली कृषक एक्सप्रेस प्लेटफार्म संख्या दो पर आ रही है.”
दोनों प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुँच गए. भीड़ बहुत कम थी, कुल पच्चीस-तीस लोग रहे होंगे जो पूरे प्लेटफार्म पर छितराये हुए थे. इन दोनों के बीच में एक लम्बा मौन पसरा हुआ था.
ज्ञान्ती दूर कहीं अवचेतन में टहल रही थी. उसे गुरसेन की याद आने लगी. ‘आखिर क्यों छोड़ रही है उसे ? क्या सिर्फ इस लिए कि वह सेक्स नहीं कर सकता ? क्या सिर्फ सेक्स ही पति-पत्नी के प्रेम का कारण है ? क्या सिर्फ इस कारण से ऐसे पवित्र रिश्ते को तोड़ा जाना चाहिए ? यदि ऐसा है तो बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनकी शादी नहीं हुई... उनका क्या ? और बहुत ऐसे भी लोग हैं जिनकी शादी तो हुई लेकिन बच्चे नहीं हुए. क्या वे सब लोग एक दूसरे को छोड़कर भाग जाते हैं ?.... नहीं-नहीं ज्ञान्ती ! सिर्फ यही कारण थोड़े है, बुद्धि भी तो नहीं है उसमें... तो इसका क्या मतलब है ? क्या वह इन्सान नहीं ? क्या उसे कोई अधिकार नहीं कि वह सामाजिक रिश्ते निभा सके...प्रेम कर सके ?’
अंतर्द्वंद से उसका सिर चकराने लगा. क्या उससे वह प्रेम करता है ? बिलकुल नहीं... उसके अन्दर तो संवेदना भी नहीं है. अगर वह संवेदनहीन है ! तो जब वह घर से निकल रही थी तो उसकी आँखों में आंसू क्यों थे ?
अंत में अन्दर ही अन्दर खुद से चिल्लाकर पूछी. “ज्ञान्ती, आखिर इसमें उसका क्या दोष है ?”... ज्ञान्ती ने भी चिल्लाकर कहा – “मैं नहीं जानती ! कि उसका क्या दोष है ? मैं सिर्फ इतना जानती हूँ कि इसमें मेरा क्या दोष है ?’
तभी धडधडाती हुयी ट्रेन आयी और रुक गयी. राजेश और पंडीजी प्लेटफार्म पर उतरे... राजेश ने अनुपम से हाथ मिलाया और अनुपम ने पंडीजी को नमस्कार किया. पैंट शर्ट पहने पंडीजी बालों को रंगकर आये थे. देखने में ठीक-ठाक थे. गेहुएं रंग पर काली मूछें फब रही थीं.
वे ज्ञान्ती को पसंद आये या नहीं उसने इस बारे में नहीं सोचा... बस, बुत बने खड़ी रही.
जब ट्रेन ने अपना भोंपू बजाया, तब जल्दी से राजेश, ज्ञान्ती का बैग लेकर अन्दर घुसा. पंडी जी भी चढ़ गए. अनुपम ने ज्ञान्ती को लगभग झकझोरते हुए कहा – जल्दी चढो.. ट्रेन चल दी है.’ लेकिन वह हिली तक नहीं, पत्थर की मूर्ति सी जड़ हो गयी... ट्रेन ने गति पकड़ ली. राजेश और पंडीजी चिल्लाते रह गए. ज्ञान्ती ने किसी का नहीं सुना. ट्रेन वहां से जा चुकी थी.
अनुपम अब भी उसे झकझोर रहा था... अचानक वह अनुपम के पैरों में गिर पड़ी और उसके मुह से आवाज आयी – मुझे बस माँ बना दो ... मैं अपने भोलूराम को छोड़कर नहीं जा सकती. उसकी चेतना लुप्त होती चली गयी. धीरे-धीरे लोगों की भीड़ जमा होने लगी थी.
संपर्क : महेश सिंह,
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