सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-7)

हमारा संयोग अच्छा था कि नाव पूरी तरह से नहीं पलटी. जब हम उसमें से गिरे तो वह समन्दर से थोड़ा पानी भरते हुए फिर से सीधी होकर डगमगा रही थी. और मैं भी, क्योंकि मैंने नाव को नहीं छोड़ा, चंदू और रालसन दूर जा गिरे. रालसन की पतवार अब भी उसके हाथ में ही थी पर चंदू उसे गवां चुका था. उसकी पतवार हमारी पहुँच से दूर थी. चंदू ने तैरकर नाव को पकड़ लिया. रालसन मछली के अगले हमले के लिए इधर-उधर देखने लगा. लेकिन वह वापस न लौटी अब उसके हमले की आशंका कुछ कम हो गयी थी. इसलिए रालसन भी नाव के पास आ गया. हम तीनो ने मिलकर नाव को सही किया और बारी-बारी से उसपर चढ़ गए. नाव में अब भी पानी भरा था. जिसको मैं और चंदू अपने अंजुली के द्वारा बाहर निकालने लगे. रालसन अब भी मछली को ही देख रहा था. लेकिन ने मछली फिर से दूसरा हमला करना उचित न समझा. और अपनी हार स्वीकार कर समुद्र में समां गयी.
काफी देर बाद (जबतक कि उसके दूसरे हमले की आशंका पूरी तरह से समाप्त न हो गयी) हमलोग अपनी नाव को अपनी मंजिल की तरफ बढाने के लिए फिर से कमर कसे.
इस प्रकार हम मौत के मुह से अपनी जिन्दगी को खींच लाये थे. इस महत्वपूर्ण जीत से हमारे आत्मविश्वास में अप्रत्याशित वृद्धि हुई. जिसके कारण हम एक बार फिर से अपनी उस मंजिल पर जाने के लिए जी-जान से आगे बढ़ने लगे. जो हमारे स्वागत के लिए आँचल बिछाए एक दुखी माँ की तरह, जो बेचैनी से अपने खोये हुए पुत्र को वापस आने का राह देख रही हो.
हमारी नाव तेजी से आगे भागी चली जा रही थी. किन्तु एक भटके राही की तरह. जिसे अपना लक्ष्य तो मालूम है लेकिन यह नहीं मालूम की उसकी दिशा और दशा क्या है ? फिर भी अँधेरे में तीर चलाता हुआ, अनुमान के सहारे भगवान पर भरोसा रखकर इस प्रकार भगा चला जा रहा है जैसे उसे विश्वास हो कि उसकी मंजिल जरुर मिलेगी.
ऐसा आदमी कभी सफल नहीं होता जिसे अपनी मंजिल की दिशा तक न मालुम हो. लेकिन कभी-कभी ऐसा आश्चर्य हो जाता है कि अनजान दिशा और अनजान रास्ते पर भी चलकर राही अपने अदम्य साहस और भाग्य के बल पर अपने मंजिल को प्राप्त कर लेता है. बस उसे धैर्य और लगन की जरुरत होती है. ऐसा इतहास में कई बार हो चुका है. उदहारण के रूप में हम कोलंबस को ले सकते है कहा जाता है कि वह निकला था भारत की खोज में, लेकिन रास्ता भटक गया. फिर भी आगे बढ़ता रहा और आख़िरकार उसने अमेरिका की खोज की. ठीक यही हाल हम लोगों का भी था. हम भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करके इतिहास को दुहराने की कोशिश में लगे हुए थे. हमारी नाव उसी दिशा में दौड़ रही थी जिस दिशा को हम लोगों ने चुना था. उत्तर की तरफ.
इधर सूर्य भी धीरे-धीरे अपनी लालिमा को वियावान समुद्र के उपर विखेरने लगा. बड़ा ही विहंगम दृश्य लग रहा था. उसकी लाल किरणे एक साथ समुद्र की सतह पर टकरा रही थीं. और वहां से उठ कर हमारी आँखों को चकाचौंध कर रही थीं.
कुछ ही देर में यह अत्यंत ही मनोरम दृश्य समाप्त हो गया और सूर्य उजाले को साथ लेकर समुद्र में गोते लगता चला गया. और धीरे धीरे फैलती घनघोर भयानक काली रात को वियावान समुद्र की सतह पर छोड़ गया. चारो तरफ अँधेरा कायम हो गया था. सुनी काली रात में समुद्र की लहरों की आवाज और इस काली रात के असीम सौन्दर्य ‘तारे’ स्वच्छ आसमान में टिमटिमाते हुए, जैसे कोई मधुर संगीत गुनगुना रहा हो, जैसे तारे ही हमारे साहस की प्रसंसा गीत गा रहे हों. और परम पिता परमेश्वर से प्राथना कर रहे हों कि वे हमारे उपर अपनी दृष्टि बनाए रखें.

हमारा मंजिल की तरफ पहुँचने का संघर्ष जारी था. नाव तेज गति से भागी चली जा रही थी और जबकि हम पूरी तरह से थक चुके थे. आखिर कबतक लड़ते हम भी तो इन्सान ही थे न. भूखा इंसान जिसके पेट में पिछले दो दिन से एक भी अनाज का दाना नहीं गया हो. भूख से पेट और पतवार चलाने से हाथ में दर्द उभर आया था. फिर भी हम लगातार चले जा रहे थे. इस प्रकार इतने संघर्ष के बाद भी मंजिल का अभी तक कोई उम्मीद नहीं दीखने के बाद हमपर निराशा हावी होने लगी थी. हम तीनो में रालसन अंकल ही एक ऐसे थे कि लगातार प्रयास करते चले जा रहे थे. 
रात अपनी नियमित गति से अपनी यात्रा तय कर रही थी. और नाव की रफ़्तार कम होने लगी थी. भूख के मारे हमारा साहस जवाब देने लगा था. सबसे पहले मैं थक हारकर भूख से छटपटाने लगी. बाद में चंदू भी. अब रालसन की बारी आने वाली थी. उससे पहले ही सूर्य हमसे रूबरू होने के लिए एक बार फिर वही मनमोहक नारंगी किरने छोड़ता हुआ उपस्थित हुआ. लेकिन इस बार सूर्य हम लोगों के लिए विजय श्री का संकेत लेकर लौटा था. क्योंकि उपर उडती हुई एकाद चिड़ियों ने हमें अवगत करा दिया कि जमीन जहाँ कहीं भी है नजदीक है.
एक बार फिर से हम लोगों के अन्दर उम्मीद की ज्वाला धधकती हुई कहने लगी –
दूर मंजिल तू अकेला, राह चूमेगी कदम, अभियान करना चाहिए
देख बाधा पीछे हटे, घबरा उठे उस जवानी को जा कहीं डूब मरना चाहिए .
हमारा शरीर जोश के मारे काप उठा. और हमने अपनी हारी हुई बाजी को एक नया रूप देने के लिए शरीर के हर धमनियों से कहा कि रक्त का संचार तेज करो. इस प्रकार थोड़ी-थोड़ी शक्ति इकठ्ठा करके इस निढाल पड़े शरीर को भरपूर उर्जा दिए. हम दोनों ने पतवार थाम लिया जिससे रालसन को सुस्ताने का भरपूर मौका मिला. मंजिल नजदीक होने के कारण हमारी नाव की रफ़्तार में वृद्धि हुई.
हम उसे पाने के लिए तेज गति से दूर तक भागते रहे. लेकिन मंजिल का नामोनिशान तक पता न चला. हम इस भयानक समुद्र से उब चुके थे. हम बढ़ी दुविधा में थे एक तरह से उबन से उब गए. क्योंकि समुद्र से उबने का कोई फायदा भी तो न था. तो ! क्या करते ? जान दे देते ? नहीं . यह तो कभी नहीं कर सकते थे हम. क्योंकि हम जिन्दगी से लड़कर मरना चाहते थे. बिल्कुल वीरों की तरह. हम कायर नहीं थे. और हमारा यह निर्णय शतप्रतिशत सही था. संघर्ष ही जीवन है और जीवन भी एक संघर्ष है. वैसे अब हमें मौत भी आ जाती तो सहर्ष ही स्वीकार कर लेते और उपर वाले के पास जाकर अच्छी तरह से सर ऊँचा करके जवाब देते . क्योंकि अब उसे कोई हक़ नहीं था कि हमसे पूछे कि तुमने संघर्ष क्यों नहीं किया ? अगर उसके पास कोई दिव्य दृष्टी हो तो.

खैर जो हो, यह तो मेरे मन की उथल-पुथल थी – भला कोई मरना चाहता है क्या ? चूँकि हमें इतनी आसानी से मौत आने वाली तो थी नहीं. इसका हम तीनो को भरोसा था और अगर आ भी जाती तो लौटकर जा नहीं पाती. उसे हमसे युद्ध करना पड़ता. तबतक, जबतक वह हमें धराशायी न कर दे. नहीं तो उसे खाली हाथ ही लौटना पड़ता. यह हमारा अटल निर्णय था.  जब मेरी सोच मशीन बंद हुई तो वास्तविकता सामने देखकर अपने आपपर हस पड़ी. चंदू और रालसन मुझे देख रहे थे. जब मैंने उन्हें देखा. दोनों के माथे पर एक लकीर उभरी हुई थी. ख़ुशी की लकीर . दोनों, मानो मुझसे कह रहे हों यह सब कहने और सुनने वाली बाते हैं. उनकी यह बाते काफी हद तक सही भी थीं. हम जिस हालात में थे यथार्थ को भोग और महसूस रहे थे. इसे वही महसूस कर सकता है जो कभी भी ऐसे दौर से गुजरा हो.  

जारी ................

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भूमंडलीय दौर में हिंदी सिनेमा के बदलते प्रतिमान

भूमंडलीकरण एक ऐसी परिघटना थी , जिसने पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में दबोचकर सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बदलने का प्रयास किया। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा , भूमंडलीकरण के आने के बाद देश की आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आया है। इस बदलाव को साहित्य , सिनेमा एवं अन्य विविध कलाओं में सहज ही महसूस किया जा सकता है। जहाँ तक हिंदी सिनेमा की बात है , तो आज पहले की अपेक्षा अधिक बोल्ड विषयों पर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। यथा स्त्री-विमर्श , सहजीवन , समलैंगिकता , पुरूष स्ट्रीपर्स , सेक्स और विवाहेतर संबंध एवं प्यार की नई परिभाषा गढ़ती फिल्में इत्यादि। कहने का आशय यह नहीं है कि भूमंडलीकरण से पूर्व उपर्युक्त विषयों पर फिल्म निर्माण नहीं होता था , परंतु 1991 के पश्चात हिंदी सिनेमा में कथ्य और शिल्प के स्तरों पर प्रयोगधर्मिता बढ़ी है। दृष्टव्य है कि संचार माध्यमों में विशिष्ट स्थान रखने वाला सिनेमा , मात्र मनोरंजन का साधन न होकर जनमानस के वैचारिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक व सामाजिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित करता हैं। चूंकि सिनेमा अपने निर्माण से लेकर प्रदर्शित हो...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-6)

मैं और मकसूद उस शराबी को देखने लगे. वह अपनी आखों को मींच रहा था और बार-बार पाईप को भी देख रहा था. मानो जैसे सपना देख रहा हो और जागने पर सपने में दिखा दृश्य अकाएक गायब हो गया हो. सुन्दरी उसके पास से चली गयी थी. वह भी अपनी दृष्टिभ्रम समझते हुए वापस जाने लगा, लेकिन बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता रहा जैसे किसी दुविधा में हो.                  “ओफ्फ ! बाल-बाल बचे”. – मैं लम्बी सांस छोड़ते हुए मकसूद से बोला बोला.           “जल्दी चलो यहाँ से ...समय बहुत कम है”- मकसूद का ध्यान लक्ष्य की तरफ था. हम दीवाल के उस दरवाजे के पास थे. मकसूद ने दीवाल में ही लगे एक हरे रंग के बटन को दबाया. दबाते ही दरवाजा घिर्रर... की आवाज के साथ खुल गया. हम दरवाजे के पार निकाल आये. उस तरफ जहा दो तीन संकरी गलियां थी. इसमें कोई आम तौर पर आता-जाता नहीं था. जहाज के सभी कबाड़ इधर ही डाले जाते थे. लकड़ी और लोहे का कबाड़. इनको पार करते हुए हम वहां पहुंचे जहाँ रईसजादों के कमरे थे.     ...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-4)

जब मेरी नींद खुली तो अँधेरा छंट गया था और सूर्य अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए उतावला था. अनंत तक फैला समुद्र, स्पष्ट दिखाई दे रहा था. शांत समुद्र में हमारी जीवन नैया भी शांत थी. और वे दोनों भी शांत थे. मने सोये हुए थे. वह आदमी, जिसके सिर के आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. दाढ़ी में भी सफेद बालों का विकास जोरो पर था. शक्ल-सूरत से एक भला इंसान लगा. लेकिन उसके खर्राटे की आवाज भयानक थी. मैं उनके जागने के पहले ही अपने दैनिक क्रिया से निवृत हो गयी और अपने भीगे कपड़े सुखाने लगी.           जब वे जगे तो सूर्य काफी उपर चढ़ आया था. दूर-दूर तक केवल जल ही जल फैला हुआ था. हम कहाँ थे ? किस दिशा में थे ? कुछ मालूम न था. हमारी शुरूआती दिशा का ज्ञान भी अबतक मिट चुका था. इस लिए हमें हमें दिशाभ्रम हुआ और सूर्य का उदय पश्चिम दिशा की तरफ होता हुआ नजर आया.           मेरे कपडे सुख गए थे.जल्दी से मैंने उसे पहन लिया. वे दोनों भी कम्बल की आड़ लेकर दैनिक क्रिया से निवृत हुए. उसके बाद हम रात का बचा हुआ चना एक साथ ब...