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फ़रवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-3)

           हम दोनों दुनियां से बेखबर आनंद के सागर में गोते लगा रहे थे,और कभी कभी उड़न भी भर रहे थे. वह मुझे आनंद की चरम ऊँचाई पर ले जाना चाहता था. मैं भी आखिरी उड़ान भर चुकी थी और मंजिल काफी नजदीक. चंदू की सांस, शांत वातावरण में विघ्न उत्पन्न करने लगी थी. मेरे भी मुह से आनंदमयी चीख निकलते-निकलते रह जाती. हम दोनों के जकड़न की कसावट बढ़ती चली जा रही थी. सहसा ! एक आवाज ने हमे चौकन्ना कर दिया. मैं चंदू से अलग हो गयी.           “तुमने कुछ सुना ?”- मैं हांफते हुए बोली.           “नहीं तो ! क्या हुआ ?” उसने हैरानी से मेरी आँखों में झाँका. एक बार फिर आवाज आयी- छप-छप-छप, जैसे कोई डूब रहा हो. चंदू ने भी सुना. मैं डरने लगी. चंदू भी चिंतित दिखा. हमने जल्दी से अपने-अपने कपड़ों को संतुलित किया. थोड़ी ही देर में फिर से वही  आवाज आयी. छप-छप-छप... लेकिन आवाज इस बार हम लोगों के काफी नजदीक से आयी थी. हमने उस तरफ अपना रुख किया. हमने देखा कि वह एक आदमी था जो अपना दोनों हाथ पानी ...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-2)

            “बाप रे !” मेरे मुह से चीख निकाल पड़ी. वह हंसने लगा. मैं उसकी तरफ देखने लगी, चेहरे का रंग बता रहा था कि वह बहुत प्रसन्न था. वह मेरी तरफ पलटा, उससे नजर मिलते ही मुझे हंसी आ गयी.             “आओ उधर चलते हैं, जहाज के पीछे की तरफ” वह मेरा हाथ पकड़कर आगे-आगे चलने लगा. मैं उसके पीछे-पीछे खींचती चली गयी.             अब हम जहाज के सबसे पिछले हिस्से के ग्राउंड फ्लोर वाले चहारदीवारी के पास थे. इंजन के  घड़घड़ाहट की आवाज आ रही थी. वहीँ चहारदीवारी के बाहर की तरफ एक छोटी नाव लटकी हुई थी. वहीँ हम दोनों कुछ देर तक खड़े रहे. जहाज के इंजन के अलावा वहां शांति पसरी हुई थी. मैं उस लड़के के बारे में सोच ही रही थी कि आगे वह क्या करने वाला है? इतने में देखते ही देखते वह जहाज के बाहरी सिरे पर लटकी उस छोटी सी नाव पर उतर गया. “नहीं ...नहीं ...तुम उधर मत जाओ ... गिर जाओगे”- मेरे मुह से चीख सी निकल पड़ी.    “यहाँ आओ न तुम भी”- उसने अपना हाथ मेरी...

भूमंडलीय दौर में हिंदी सिनेमा के बदलते प्रतिमान

भूमंडलीकरण एक ऐसी परिघटना थी , जिसने पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में दबोचकर सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बदलने का प्रयास किया। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा , भूमंडलीकरण के आने के बाद देश की आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आया है। इस बदलाव को साहित्य , सिनेमा एवं अन्य विविध कलाओं में सहज ही महसूस किया जा सकता है। जहाँ तक हिंदी सिनेमा की बात है , तो आज पहले की अपेक्षा अधिक बोल्ड विषयों पर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। यथा स्त्री-विमर्श , सहजीवन , समलैंगिकता , पुरूष स्ट्रीपर्स , सेक्स और विवाहेतर संबंध एवं प्यार की नई परिभाषा गढ़ती फिल्में इत्यादि। कहने का आशय यह नहीं है कि भूमंडलीकरण से पूर्व उपर्युक्त विषयों पर फिल्म निर्माण नहीं होता था , परंतु 1991 के पश्चात हिंदी सिनेमा में कथ्य और शिल्प के स्तरों पर प्रयोगधर्मिता बढ़ी है। दृष्टव्य है कि संचार माध्यमों में विशिष्ट स्थान रखने वाला सिनेमा , मात्र मनोरंजन का साधन न होकर जनमानस के वैचारिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक व सामाजिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित करता हैं। चूंकि सिनेमा अपने निर्माण से लेकर प्रदर्शित हो...

ज्ञान्ती (कहानी) हिंदी अकादमी की पत्रिका इन्द्रप्रस्थ भारती के अगस्त 2016 के अंक में प्रकाशित

‘मुझे अब एक पल भी इस घर में नहीं रहना. . .जा रही हूँ मैं… सबकुछ छोड़कर… हाँ-हाँ सब कुछ ! लेना तो मुझे एक साड़ी भी नहीं… लेकिन, ना लूँ तो पहनूंगी क्या ? अपने गहने ! कैसे छोड़ दूँ ? ये तो मेरे हैं. खाक मेरे हैं ? अरे, जब पैदा करने वाले मेरे नहीं रहे, तो अब इन गहनों से क्या सरोकार ? और क्या भरोसा कि जहाँ जा रही हूँ वहां भी मेरा कोई अपना होगा ? भांड में जाये सब... अब कुछ नहीं सोचना मुझे... बस, अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी. और … और अनुपम तो मेरा अपना है. वह जो भी करेगा, मेरे भले के लिए ही करेगा. मुझे उसपर भरोसा करना चाहिए, और कोई रास्ता भी तो नहीं’- ज्ञान्ति के मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे. और उसके हाथ-पांव इधर-उधर भागकर अपना काम करने में लीन थे. जब कपड़े और गहनों से, बैग ठसाठस भर गया तब वह कुछ शांत हुई. कमरे में इधर- उधर नजर दौड़ाई, ‘कहीं कुछ और जरुरी सामान तो नहीं छुट रहा’. कमरे की हालत जर्जर थी. मिट्टी की दीवार, शहतीरों पर टिके खपरैल कभी भी गिर सकने की हालत में थे. भारी-भरकम आदम के जमाने का पंखा लटक रहा था. ‘जब भी चलता है चूं-चां किये घूमता ही नहीं , वह भी कितना ? अरे ! इसके घुमने से ज्यादा...

(धारावाहिक उपन्यास 1 )

1  शाम का समय था करीब पांच बज रहे होंगे सूर्य पश्चिम दिशा से पूरे आसमान में लाल किरणे छोड़ता हुआ आइस्ता-आइस्ता समुद्र में समता चला गया. मैं एक गुडिया हाथ में लिए चहारदीवारी के पास खड़ी होकर अपने नियमित गति से चल रही जहाज तथा जहाज द्वारा उछाले गए पानी के साथ जी-जान लगाकर किनारे की तरफ भागती और उछलती हुई तरह –तरह की समुद्री मछलियों को देख रही थी. अचानक मेरे हाथ से गुडिया छूटकर नीचे की तरफ गिरी. मैं झुककर देखने लगी. आश्चर्य ! देखा कि एक चौदह-पंद्रह वर्षीय, सावला रंग लेकिन खुबसूरत लड़का जो काला पेंट और भूरे रंग की जर्सी पहने हुए था, लपककर समुद्र की तरफ गिरती हुई मेरी गुडिया को बीच में ही पकड़ लिया. वह मेरी तरफ देखा, उसके होठों पर विजयी मुस्कान थी.               इस घटना से बेखबर जहाज अपनी रफ़्तार से अपने गंतव्य की तरफ बढ़ती चली जा रही थी. मैं उपर से ही चिल्लाई – “वह मेरी है”             वह भी चिल्लाते हुए बोला-“ मैं कब कह रहा हूँ कि मेरी है.”     ...