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भूमंडलीय दौर में हिंदी सिनेमा के बदलते प्रतिमान

भूमंडलीकरण एक ऐसी परिघटना थी , जिसने पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में दबोचकर सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बदलने का प्रयास किया। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा , भूमंडलीकरण के आने के बाद देश की आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में काफी बदलाव आया है। इस बदलाव को साहित्य , सिनेमा एवं अन्य विविध कलाओं में सहज ही महसूस किया जा सकता है। जहाँ तक हिंदी सिनेमा की बात है , तो आज पहले की अपेक्षा अधिक बोल्ड विषयों पर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। यथा स्त्री-विमर्श , सहजीवन , समलैंगिकता , पुरूष स्ट्रीपर्स , सेक्स और विवाहेतर संबंध एवं प्यार की नई परिभाषा गढ़ती फिल्में इत्यादि। कहने का आशय यह नहीं है कि भूमंडलीकरण से पूर्व उपर्युक्त विषयों पर फिल्म निर्माण नहीं होता था , परंतु 1991 के पश्चात हिंदी सिनेमा में कथ्य और शिल्प के स्तरों पर प्रयोगधर्मिता बढ़ी है। दृष्टव्य है कि संचार माध्यमों में विशिष्ट स्थान रखने वाला सिनेमा , मात्र मनोरंजन का साधन न होकर जनमानस के वैचारिक , सांस्कृतिक , राजनीतिक व सामाजिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित करता हैं। चूंकि सिनेमा अपने निर्माण से लेकर प्रदर्शित हो...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-6)

मैं और मकसूद उस शराबी को देखने लगे. वह अपनी आखों को मींच रहा था और बार-बार पाईप को भी देख रहा था. मानो जैसे सपना देख रहा हो और जागने पर सपने में दिखा दृश्य अकाएक गायब हो गया हो. सुन्दरी उसके पास से चली गयी थी. वह भी अपनी दृष्टिभ्रम समझते हुए वापस जाने लगा, लेकिन बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता रहा जैसे किसी दुविधा में हो.                  “ओफ्फ ! बाल-बाल बचे”. – मैं लम्बी सांस छोड़ते हुए मकसूद से बोला बोला.           “जल्दी चलो यहाँ से ...समय बहुत कम है”- मकसूद का ध्यान लक्ष्य की तरफ था. हम दीवाल के उस दरवाजे के पास थे. मकसूद ने दीवाल में ही लगे एक हरे रंग के बटन को दबाया. दबाते ही दरवाजा घिर्रर... की आवाज के साथ खुल गया. हम दरवाजे के पार निकाल आये. उस तरफ जहा दो तीन संकरी गलियां थी. इसमें कोई आम तौर पर आता-जाता नहीं था. जहाज के सभी कबाड़ इधर ही डाले जाते थे. लकड़ी और लोहे का कबाड़. इनको पार करते हुए हम वहां पहुंचे जहाँ रईसजादों के कमरे थे.     ...

(धारावाहिक उपन्यास, एपिसोड-4)

जब मेरी नींद खुली तो अँधेरा छंट गया था और सूर्य अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए उतावला था. अनंत तक फैला समुद्र, स्पष्ट दिखाई दे रहा था. शांत समुद्र में हमारी जीवन नैया भी शांत थी. और वे दोनों भी शांत थे. मने सोये हुए थे. वह आदमी, जिसके सिर के आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. दाढ़ी में भी सफेद बालों का विकास जोरो पर था. शक्ल-सूरत से एक भला इंसान लगा. लेकिन उसके खर्राटे की आवाज भयानक थी. मैं उनके जागने के पहले ही अपने दैनिक क्रिया से निवृत हो गयी और अपने भीगे कपड़े सुखाने लगी.           जब वे जगे तो सूर्य काफी उपर चढ़ आया था. दूर-दूर तक केवल जल ही जल फैला हुआ था. हम कहाँ थे ? किस दिशा में थे ? कुछ मालूम न था. हमारी शुरूआती दिशा का ज्ञान भी अबतक मिट चुका था. इस लिए हमें हमें दिशाभ्रम हुआ और सूर्य का उदय पश्चिम दिशा की तरफ होता हुआ नजर आया.           मेरे कपडे सुख गए थे.जल्दी से मैंने उसे पहन लिया. वे दोनों भी कम्बल की आड़ लेकर दैनिक क्रिया से निवृत हुए. उसके बाद हम रात का बचा हुआ चना एक साथ ब...